भारतेन्दु ने अनेक रंगपरम्पराओं को पचाते हुए ऐसी विशिष्ट रंगशैली गढ़ी है जो राजनीति, धर्म, बाजार आदि ताक़तों की टकराहट में दर्शकों को प्रदर्शन का हिस्सा बनाती है। इस अनोखी रंगशैली के कारण डेढ़ सौ साल बाद भी 'अन्धेर नगरी' नाटक बच्चों और बड़ों के लिए आकर्षण का आधार बना हुआ है। इनके बाद जयशंकर प्रसाद ने (1906 और 1933 के बीच) कला के अनेक अनुशासनों से गुजरकर, महाकाव्यात्मक स्तर पर, राष्ट्रीय सुरक्षा के जरूरी सवालों के साथ राजनीति और व्यक्ति के टकराव को नये धरातलों पर पेश किया है। यह अलग बात है कि उनसे उभरती गैरयथार्थवादी शैली को तत्कालीन रंगकर्मी नहीं पहचान सके। हाँ, उनका 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक शौक्रिया रंगमंच पर हमेशा चर्चा का विषय बना रहा।
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