गुरो यदभ्यस्तमशेषसत्यं शिवं सुरूपं सुरभारतीयम् ।
रसात्महं तत्त्वमहं त्वदीये सुकण्ठमध्येऽद्यसमर्पयामि।।
तुलसी के मानस की व्यापकता ने जनमानस को प्रतिपल आंदोलित किया है, गहन चिंतन को दिशा दी है, भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध स्नेह एवं देशप्रेम के जूनून ने अतीत के पृष्ठों को पलटनें की उत्सुकता बढ़ाई है। तुलसी की रचनाओं के समय को ध्यान में रखते हुए आकलन किया जाए तो सिद्ध होता है कि तुलसी के समय मुगलों का शासन स्थापित हो चुका था, चारों ओर अशांति और अराजकता व्याप्त थी, सामान्य जनता की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। तुलसी युगीन भारत की आर्थिक स्थिति अत्यन्त जर्जर थी। विदेशी आक्रमणों का उद्देश्य केवल यहाँ की धन-सम्पदा को बटोर कर ले जाना था। प्राकृतिक प्रकोपों ने भी जनता की आर्थिक दशा को शोचनीय बना दिया था।
तुलसी युगीन समूचे परिवेश में कपट, हठ, दम्भ, द्वेष व पाखण्ड व्याप्त था। मनुष्य जप, तप, दान, व्रत तामसी भाव से करने लगे थे। पुरूषों में नैतिकता-अनैतिकिता का विवेक समाप्त हो गया था। वे बहिन और बेटी में भेद नहीं करते थे। व्यर्थ की बातों में परस्पर झगड़ते रहते। मध्यकाल में नारी की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। सामाजिक व वैयक्तिक धरातल पर वह सिर्फ भोग विलास की वस्तु मात्र थी, सामाजिक कुण्ठाओं और बंधनों ने उसे अबला का रूप दे दिया। उपासना, वैदिक कार्य व उच्च शिक्षा से वंचित कर दिया गया। सिर्फ एक धर्म, एक राह उन्हें ज्ञात थी और वह पति सेवा, इसके अतिरिक्त उनका कोई मूल्य न था परंतु तुलसी ने उन अबलाओं को अपने तेज बल से पराजित कराया और उनके लिए उपासना के द्वारा खोल दिए।
तद्युगीन स्त्री दशा से तुलसी क्षुब्ध थे। वे जानते थे कि पुरुषप्रधान समाज समाज नारी को न्यायोचित अधिकार से वंचित रखता है। पुरूष की स्वेच्छाचारिता सर्वेसर्वा होती है। यहाँ तक कि उच्च कुल में उत्पन्न स्त्रियों की दशा भी कोई प्रशंसनीय या सराहनीय न थी। तुलसीयुगीन समाज अनेकानेक धार्मिक आडम्बरों से ग्रस्त था। वह युग विविध मतान्तरों और सम्प्रदायों का युग था जिनकी मूल धर्म संभावना लगभग लुप्त हो चुकी थी।
यद्यपि तुलसी आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पुराने हैं परन्तु उनकी सामाजिक चिंताएँ वर्तमान में भी उतनी ही सार्थक है। वास्तव में उनका संपूर्ण चिंतन मानव मात्र की चिंता से जुड़ा है। उनकी चिंताएँ समाज के शाश्वत प्रश्नों से जुड़ी है जिनके लिए उन्होंने समकालीन सामन्ती समाज से संघर्ष किया। वस्तुतः आज के समय में तुलसी को पढ़ना अपनी संस्कृति व साहित्य से अवगत होना व अपने सांस्कृतिक मूल्यों का परिचय पाना है। उनकी कृतियों में लोक संस्कृति अति प्रभावशाली व सशक्त है।
तुलसीकृत साहित्य में लोक संस्कृति के अध्ययन पर आधारित है। इसे सुविधा, सरलता व सहजता की दृष्टि से पाँच अध्यायों में विभक्त किया गया है। तुलसी और तुलसी कृत साहित्य का कोई भी पहलू जो संस्कृति व मान्यताओं, लोक परंपराओं और मानव कल्याण से जुड़ा है; अछूता न रह जाए, यही प्रयास इस पुस्तक का उद्देश्य है। अब से पहले भी अनेकों विद्वानों ने शताब्दियों से तुलसी कृत रचनाओं और साहित्य समुद्र को मथा है। चिंतन की गहन धाराओं में उतर कर तुलसी को सराहा है। उनकी सर्व जन हिताय रचना को सिद्ध किया है।
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