श्रीमद्भगवद्गीता (गीता) अद्वितीय ग्रन्थ है। अति संक्षिप्त होकर भी यह अकेले ही श्रेयकामियों का सम्पूर्ण मार्गदर्शन करने में पर्याप्त सक्षम है। इसमें अध्यात्म के जिज्ञासुओं और साधकों के लिए सब कुछ गर्भित है। जरूरत है, गहराई में प्रवेश करने की। ज्ञान के इस अथाह सागर का अध्ययन, प्रत्येक मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। इसमें कोई भी अपने लिए, परमसत्य परमेश्वर के मार्गदर्शक-सन्देश को पा सकता है। किन्तु इसकी पूरी उपयोगिता सत्य-जिज्ञासुओं और विशेषतः श्रेयकामियों के लिए ही है।
श्रीमद्भगवद्गीता की गूढ़तम एवं सर्वोच्च शिक्षा, केवल उनके लिए है, जो ईश्वर में और ईश्वर के लिए जीवन जी सकते हैं। किन्तु कोई भी मनुष्य इससे सुनिश्चित लाभ की आशा कर सकता है, चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ा क्यों न हो। आस्तिक ही नहीं, नास्तिक भी इससे लाभान्वित हो सकते हैं। स्वयं को नीच से नीच या पापी से पापी समझनेवाला व्यक्ति भी, इसकी सहायता से भक्ति-मार्ग पर अग्रसर होकर, सर्वोच्च श्रेय को उपलब्ध हो सकता है। सांसारिक जीवन जीते हुए, श्रेय को उपलब्ध होने की इच्छा रखनेवालों के लिए तो यह बहुत ही उपयोगी है; क्योंकि यह सर्वोच्चज्ञान में स्थित रहकर, सांसारिक जीवन व्यतीत करने की व्यवहारिक शिक्षा देती है।
कुछ लोग सोचते हैं कि अर्जुन की समस्या असाधारण थी, अतः उसके लिए गीता की शिक्षा जरूरी थी। सामान्य मनुष्य के लिए गीता की शिक्षा की क्या जरूरत है? परन्तु ऐसा सोचना सही नहीं है। अर्जुन की समस्या मूलतः इतनी ही थी कि उसे युद्ध करने और न करने में से किसी एक को चुनना था। उसकी समझ में दोनों ही गलत था। ऐसी स्थितियाँ सामान्य मनुष्य के जीवन में भी आती ही रहती हैं, जब करने और न करने में से एक को चुनना मुश्किल होता है; क्योंकि दोनों ही गलत प्रतीत होता है। तब वह समस्या को भाग्य अथवा ईश्वर के भरोसे छोड़कर पलायन कर जाता है अथवा किसी एक गलत का चुनाव कर तनावग्रस्त हो जाता है अथवा जगत् को मिथ्या मानने का शुतुरमुर्गी तरीका ढूँढता है। ऐसी स्थिति में विहितकर्म, अविहितकर्म आदि की व्याख्या करनेवाले धर्मशास्त्रों से भी सहायता नहीं मिलती; क्योंकि उन शास्त्रों के पास कर्म और जीवन के प्रति मौलिक एवं वैयक्तिक दृष्टि का अभाव होता है। जबकि गीता की शिक्षा मनुष्य-सत्य, जगत्, जीवन, धर्म और कर्म आदि के बारे में मौलिक एवं वैयक्तिक दृष्टि प्रस्तुत करती है, जिस दृष्टि में सारे संशय तिरोहित हो जाते हैं। अतः गीता की शिक्षा प्रत्येक मनुष्य के लिए आज भी उपयोगी है तथा आगे भी रहेगी। गीता की शिक्षा मनुष्य की सभी उलझनों को सरलतापूर्वक सुलझा देती है। मनुष्य की समस्याओं का मूल कारण है कि वह एक ही साथ शरीर-प्राण, मन-बुद्धि और आत्मा तीनों है, जबकि तीनों का प्राकृतिक विधान सर्वथा अलग-अलग और अलंघ्य है। प्रायः मनुष्य की इस त्रिविध जटिलता को तोड़मरोड़ कर या काट-छाँट कर, उसकी समस्याओं को सुलझाने का असफल प्रयास किया जाता रहा है, किन्तु गीता की शिक्षा मनुष्य को उसके तीनों विधानों से परे उसके मर्म को दिखाकर, उसकी सभी उलझनों को समाप्त कर देती है। गीता मनुष्य के जीवन और कमाँ की बाह्य वास्तविकता और उसके आन्तरिकतम सत्य के सुसंगत एकत्व को प्रत्यक्ष कराती है।
श्रेयकामी मनुष्य को कर्ममय जीवन अनिवार्य बन्धन के रूप में अनुभूत होता है, जिससे वह निस्तार पाना चाहता है। वह अपने लिए धर्ममय कर्म-निर्धारक विधान अथवा कर्म से निवृत्ति का उपाय खोजता है। वह व्यवहारिक मार्ग खोजता है, जिस पर वह अपनी स्वतंत्र इच्छाओं का निवेश करके, यथाशीघ्र परमशान्ति और मुक्ति को उपलब्ध हो सके। ऐसे मार्ग को ही योग के नाम से जाना जाता है। गीता उत्कृष्टतम योग-शास्त्र है। इसीलिए गीता मुमुक्षुओं के लिए, अत्यन्त उपयोगी है। किन्तु यह अत्यन्त गूढ़ ग्रन्थ है। इसके आशय को सरलतापूर्वक समझाने के लिए, अनेकों ग्रन्थ लिखे गए हैं और आगे भी लिखे जायेंगे। अनेक विद्वानों ने गीता की अथाह गहराई में डूबकर, उसमें से ज्ञान के मोतियों को ढूँढने का प्रयास किया है। आगे भी ऐसे प्रयास होते रहेगें। किन्तु गीता के प्रायः टीकाकारों द्वारा गीता में गर्भित श्रीभगवान् के संदेशों को खोजने पर अधिक ध्यान नहीं देकर, सारा ध्यान उनके अपने मतों अथवा अन्यान्य शाखीय-वैदिक मतों को ही स्थापित करने पर केन्द्रित रखा गया है। जरूरत है कि आग्रह-मुक्त होकर गीता में गर्भित श्रीभगवान् के यथार्थ संदेशों की खोज होती रहे।
प्रयासपूर्वक सभी आग्रहों से मुक्त रहकर, गीता में गर्भित श्रीभगवान् के संदेशों को यथासामर्थ्य यथावत् व्यक्त करने के उद्देश्य से; मैंने श्रीभगवान् को ही सम्बोधित करते हुए, गीता की भावार्थ सहित व्याख्या लिखी और उसे "मानव-मर्म" नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया। किन्तु श्रीभगवान् को ही सम्बोधित होने के कारण, भावना के प्रवाहवश वह पुस्तक ज्यादा ही बड़ी हो गई। कई सुधी पाठकों से परामर्श मिला कि यदि उस पुस्तक के विस्तार को कम करके पुनः प्रकाशित कराया जाय, तो वह पुस्तक श्रेयाभिलाषियों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होगी। उस परामर्श को मैं ने श्रीभगवान् का आदेश समझा। इस प्रकार "मानव-मर्म" के सार को छोड़े बिना, पुनः गीता की भावार्थ सहित व्याख्या लिखने का कार्य "गीता-सन्देश" नामक पुस्तक के रूप में पूरा हुआ। उस पुस्तक को छपवाने और प्रकाशित करने का कार्य, मेरे लिए पंगु-गिरि-लङ्घन जैसा ही था। किन्तु श्रीभगवान् की अचिन्त्य कृपा हुई और इस पुस्तक को छपवाने और प्रकाशित करने का उनका सङ्कल्प, जगदम्बा श्रीदुर्गा के उपासक श्री अंशुमान सिंह (मेरे सुपुत्र) के माध्यम से सक्रिय एवं सफल हुआ। श्री अंशुमान सिंह सेन्ट्रल बैंक में उच्चपदस्थ अधिकारी हैं। जिम्मेदारियों और अति व्यस्तता के बावजूद, उन्होंने इस पुस्तक को छपवाने और प्रकाशित कराने का कार्य पूरा किया। "गीता-सन्देश" का प्रकाशन केवल उनके प्रयास का ही प्रतिफल है।
गीता स्वयं में पूर्ण है। वह तभी अवतरित हुई; जब अर्जुन अपने सभी आग्रहों से मुक्त होकर, भगवान् श्रीकृष्ण के शरणागत हो पाया। अतः गीता के यथार्थ को समझने के लिए - आग्रह-मुक्त मन-बुद्धि और गीता पर श्रद्धा-विश्वास के साथ अनन्य आश्रितता अनिवार्य है।
ऐसा सघ जाने पर यह पर्याप्त भी है। फिर भी, गीता को समझाने के लिए अथवा उसमें गर्भित ज्ञान के अनावश्यक समर्थन में, प्रायः अन्य ग्रंथों से उद्धृत अंशों का सहारा लिया जाता है; जो मेरे मत में उचित नहीं है। ऐसे प्रयासों से, गीता का यथार्थ ओझल हो सकता है। अपने मत को गीता से समर्थित सिद्ध करने के उद्देश्य से भी अन्य ग्रंथों के उद्धरणों का भरपूर उपयोग होता आया है; जिनके के कारण आज गीता के सही आशय को समझ पाना ही दुःसाध्य हो गया है। इसीलिए "गीता-सन्देश" में अन्य ग्रंथों से कहीं भी कुछ भी उद्धृत नहीं किया गया है। आशा है कि उद्धृतांशों से रहित "गीता-सन्देश" गीता के यथार्थ को समझने और खोजने में सहायक होगा।
गीता का अध्ययन करते समय बीच-बीच में रुक कर अध्ययन कर चुके अंश के सारांश को चित्त में सुव्यवस्थित कर लेने से, उसकी शिक्षा ठीक से आत्मसात् हो पाती है। गीता में 18 अध्याय हैं, जिसे प्रत्येक 6 अध्याय के तीन खण्डों में समझा जा सकता है। इसके 15वें अध्याय में यथार्थ अद्वैत रूपी सर्वोच्च ज्ञान उद्घाटित हुआ है। अतः पाठकों की सुगमता के उद्देश्य से, "गीता-सन्देश" में 6वें, 12वें, 15वें और अन्तिम 18वें अध्याय के पश्चात् उन अध्यायों तक गीता की शिक्षा का सारांश भी दे दिया गया है। आशा है कि इससे गीता की शिक्षा को आत्मसात् करने में, पाठकों को सुविधा होगी।
गीता अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण की जीवन्त वार्ता है, जिसमें कहीं भी व्यतिक्रम नहीं है। इसे इसी दृष्टि से समझना चाहिए। इसमें अनेक अमर सन्देश गर्भित हैं। किन्तु प्रत्येक मनुष्य के लिए, गीता का केन्द्रीय सन्देश यही है कि वह परम सत्य परमेश्वर का सचेतन यच्त्र बन जाय। यही मनुष्य की वास्तविकता भी है।
विश्वास है कि पाठकगण "गीता-सन्देश" में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा करेंगे तथा उनके माध्यम से आनन्दमय श्रीभगवान् प्रहर्ष को प्राप्त होते रहेंगे।
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