जनजातीय एवं लोक संगीत में मेरी अभिरूचि बचपन से ही रही है। गाँव की गम्मतों में लोग अपने मनोरंजन के लिये भजन, कीर्तन, करमा, ददरिया, बम्बुलिया, राई, गारी आदि अनेक लोकगीतों का गायन करते थे। मैं भी गम्मत में जाकर बैठता और जो मन का स्वर मिलता, उनके स्वर में स्वर मिलाता था। पद्मश्री शेख गुलाब के सान्निध्य में जनजातीय और लोक संगीत सीखने का खुला अवसर प्राप्त हुआ। कालान्तर में मेरी अभिरूचि विकसित हुई और गोण्ड जनजाति के गीतों के संकलन का विचार मन में आया। मैंने कतिपय जनजातीय ग्रामों का भ्रमण कर गाँव के बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्तियों से भेंट की। गाँवों में रात्रि विश्राम किया। उनके घरों में भोजन किया, उनके साथ नाचा-गाया और जंगल, पहाड़ों की सैर भी की। जनजातियों के जन्म, विवाह और मरण-संस्कारों में शामिल होकर उन्हें नजदीक से देखा। गोण्ड जनजाति के गीतों की बारीकियों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, प्रथाओं आदि को अच्छी तरह से समझ कर आत्मसात किया। गोण्ड जनजाति के जो भी गीत पुस्तक में दिये गये हैं, वे विशुद्ध रूप से मौलिक एवं पारम्परिक हैं। प्रत्येक गीत के साथ कोई न कोई प्रथा, रस्म या परम्परा जुड़ी रहती है। गोण्ड जनजाति में अनेक प्रथाएँ और परम्पराएँ होती हैं। लोकगीत जब अंतरा के साथ गाया जाता है, तो अंतरा-दर-अंतरा में गायकों के मध्य होड़ सी लग जाती है। कतिपय ऐसे लोक गीत होते हैं, जिनमें एक अंतरा सवाल का होता है, तो दूसरे अंतरा में जवाब दिया जाता है। लोकगीतों की एक प्रकृति यह भी होती है कि अंतरा की पहली पंक्ति के भाव दूसरी पंक्ति के भाव से मेल नहीं खाते हैं। केवल तुकबन्दी से ही गायकों और श्रोताओं को आनन्द आता है। क्योंकि गीतों में कुछ शब्द ऐसे होते है, जिनका कोई अर्थ नहीं होता है, किन्तु उनके बिना लोकगीत पूरा भी नहीं होता। लोकगीतों में तुकबन्दी का विशेष महत्त्व होता है और वही सर्वोपरि होता है। अनुवाद की दृष्टि से देखेंगे तो अन्तरा की प्रथम पंक्ति का अर्थ अगली पंक्ति से मेल नहीं खाता है। गायक और श्रोता को गीतों की पंक्तियों से निकलने वाले भावानंद से ही सरोकार होता है। लोक गीतों के अनुवाद में भावार्थ का सहारा भी लेना पड़ता है। कतिपय लोकगीतों के शब्द गूढ़ होते हैं, किन्तु इनका भावार्थ विस्तृत होता है। कतिपय लोकगीतों के अनुवाद में केवल मुखड़ा और अंतरा का अनुवाद किया गया है। अंतरों के साथ बार-बार मुखड़ा आया है, उसका अनुवाद नहीं किया गया है। लोकगीत की एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति के भावार्थ में कोई तारतम्य जरूरी नहीं है। जन मानस भी इसकी परवाह नहीं करता है।
मध्यप्रदेश के सुन्दर वन प्रान्तों, अंचलों एवं ग्रामीण वातावरण में गोण्ड जनजाति निवास करती है। वहाँ का जनजीवन उन्मुक्त वातावरण में अति सुन्दर ढंग से मुखरित होता है। जनजातीय जनों को जितना अधिक बोध अपने इन लोकगीतों में होता है, उतने ही अधिक सुस्पष्ट और निश्छल वे अपने जीवन में होते हैं। अपनी संगीत-कला में वे पारंगत एवं दक्ष होते हैं। गोण्ड जनजाति के गीत उनके जीवन की जीती जागती सम्पत्ति है। उनके सुख-दुःख, सामाजिक मान-मर्यादा, पारिवारिक जीवन, धार्मिक आस्थाएँ एवं सामाजिक चेतना आदि इन लोकगीतों में निहित है। इनमें संस्कृति के दर्शन होते हैं, क्रियाकलापों का विधिवत वर्णन मिलता है। पूजा-अनुष्ठान, देवी-देवता, मान-मनौती, राग अनुराग आदि का सटीक उल्लेख होता है। पर्व-त्योहारों, आदिम मान्यताओं, प्रथाओं की झलक इन गीतों में मिलती है।
इस पुस्तक का मूलाधार मेरा लगभग पच्चीस वर्षों का श्रमसाध्य संकलन कार्य है। किसी भी महत्त्वपूर्ण संकलन कार्य की लक्ष्य प्राप्ति के लिये हितचिंतक एवं प्रियजनों की प्रेरणा, सम्बल, प्रोत्साहन एवं सक्रिय सहयोग की आवश्यकता होती है, तभी किया गया प्रयास एवं श्रम फलीभूत होता है। इस अवसर पर मुझे पद्मश्री शेख गुलाब का स्मरण आता है, जिन्होंने सदैव मुझे ऐसे संकलन एवं लेखन कार्य के लिये अनुप्रेरित किया। इसी तारतम्य में मैं अपनी जीवनसंगिनी श्रीमती आमना बी का उल्लेख अपरिहार्य रूप से करूँगा, जिन्होंने अपनी प्ररेणादायी वाणी एवं व्यवहार से मुझमें इस कार्य के प्रति अदम्य स्फूर्ति एवं लगन का संचार किया है। गोण्ड जनजाति के गीतों के संकलन कार्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भागीदारी पद्मश्री शेखगुलाब जनजातीय लोक कला संस्थान, बीजाडांडी, जिला-मंडला (म.प्र.) की रही है। संस्थान के अध्यक्ष श्री राकेश कुरेले एवं सचिव श्री रफीक खैरागढ़ी ने मेरे साथ जनजातीय ग्रामों का भ्रमण कर सक्रिय और व्यावहारिक सहयोग दिया है। कह सकता हूँ कि उनके सहयोग से ही यह महत्त्वपूर्ण कार्य संभव हो सका है। इस क्रम में मेरे आत्मीय मित्र, सहयोगी एवं शुभ चिंतक श्री दुर्गा प्रसाद बाजपेई का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहूँगा, जिन्होंने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये लेखन एवं सम्पादन में अपना हार्दिक सहयोग मुझे प्रदान किया है। गोण्ड जनजाति के गीतों के उन पारंगत व्यक्तियों के नामों का उल्लेख और आभार अवश्य करना चाहूँगा, जिन्होंने इन लोकगीतों के मर्म को अपने कंठों से उतार कर मुझे हस्तगत कराया है। इन व्यक्तियों ने अपने मौलिक ज्ञान तथा वर्षों के अनुभव से मुझे लाभान्वित करने में थोड़ा भी संकोच नहीं किया है और मैं यह कठिन कार्य करने में सफल हो सका हूँ। अजीज मोहम्मद (डिंडौरी), पुन्नूलाल सैयाम, चौकी (मंडला), कमल सिंह मारको, पिपरिया (मंडला), प्रेमलाल, धनवाही (मंडला), धर्मसिंह परते, नारायण डीह (डिंडौरी), कलावतीबाई, श्यामाबाई, नरबदबाई, मगरधा (मंडला)।
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