ये किताब जिसका असली नाम है कद जहरा यौमिल मीआद् अर्थात वादे कादिन जाहीर हुवा । आज सभी लोग चाहे वे दाऊदी बोहरा हो, सुलेमानी बोहरा हो, अलिया बोहरा हो या मेहदी बागवाले बोहरा हो। सब इंतझार कर रहे है कि दो कयामते होगी, दोन बार सुर फुंका जाएगा । कयामतें सुगरा और कयामते कुबरा यानी छोटी और बडी कयामते । इसमे याद है इ. सन १९४४-४५ मे मुकद्दस मौला सैफी मस्जीद मे, खास तौर पर रमझान महीने मे नमाज पढने जाता था। जुम्मे ही नमाज के बाद मुकद्दस मौला की सदारत मे इमामुज्जमान के जुहूर के लिए भिंडी बझार के चार मोहल्लो मे शानदार जुलूस निकलता । बोहरा बिरादर इमामुज्जमान के जुहुर के लिए निदा करते।
या इमामुज्जमान ! जुहुर किजीए। या इमामुज्जमान ! मोमीनो ने परामिलो। इमामुज्जमान के जुहुर के लिए दो रकात नमाज पढी जाती। मुकद्दस मौलाना की वायज मे इमामुज्जमान के जुहुर के लिए खास तौर वयान होता।
मेरी माँ रानी माँ का कहना था की मेरा जन्म ५ शब्वाल हिजरी सन १३४२ मे जुम्मा के दिन दोपहर २-२.१५ बजे हुवा, वह भी घर मे ही। मेरा घर डॉक्टर स्ट्रीट मे था जो फिलहाल सैफी ज्युबिली स्ट्रीट के नाम से पहचानी जाती है, उसी मे हमारे घर की तिसरी मंजिल के बरामदे मे बैठे थे और निचे मुकद्दस मौलाना का जुलूस इमामुज्जमान के नारो से गुज रहा था। ऐसे खुशगवार माहोल मे मेरा जन्म हुवा था।
ये सब बाते लिखने का एकही कारण है की मोमीनीन रात और दिन ऐसा समजते थे की जुहुर का समय हो गया है या नजदिक है। और यही कारण है कि मैं मेरे पिताजी को भी इमामुज्जमान के जिक्र करने मे मशगुल देखता। रविवार को जैली की क्लब, जो नागपाडा क्लेअर रोडपर झेनिथ फॅक्टरी के सामने थी, वहाँ हर रविवार को तीन थाल मे लोग खाना खाने के लिए जमा होते थे। उस जमाने मे लोग जुआँ या ऐसे कोई भी बुरे काम से परहेज करते थे। ऐसी जगहो मे मजहबी चर्चा या ब्यापार की बात करते या घुमने फिरने या पिकनिक के प्लान बनाते। बहुत प्रेम भरा वातावरण होता था।
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