हिन्दी आलोचना का अपना जनपक्ष है और इसकी ओर प्रथम दृष्टया चन्द्रबली सिंह का ध्यान गया था। मैंने उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए विशेष तो नहीं; किन्तु आगे की कड़ी में जो भी रचनाकार मुझे लगे कि कहीं न कहीं जनता के गतिशील पक्ष को साहित्य में उतारने का काम कर रहे थे, साथ ही साथ उनके संघर्ष को कला में बड़े ही संजीदगी के साथ चित्रण कर रहे थे, उन्हें उसी आलोचकीय दृष्टि का सहारा लेकर यहाँ समझने-बुझने व विवेचित-विश्लेषित करने का काम किया हूँ। उनमें तो कुछ ऐसे रचनाकार थे, जो हमारे बीच नहीं रहे किन्तु उनकी रचनाएँ सदियों तक जनपक्ष की वैचारिक-किरणों को आलोकित करेंगी, उनमें प्रमुख नाम प्रेमचंद का है, जिनकी रचनाएँ भारतीय जन-जीवन को न सिर्फ रुपायित कर रही थीं, बल्कि उन्हें निर्देशित भी कर रही थी। प्रेमचंद में सबसे दम की जो बात थी वह यह कि वे अपने समय की शोषक-शक्तियों को बखूबी पहचान रहे थे और यह भी कि इन शक्तियों से टकराने के लिए कौन-सी नयी शक्ति आकार ले रही है। प्रेमचंद के उपन्यासों व कहानियों में इसका स्पष्ट चित्रण देखा जा सकता है कि किस तरह वे किसान-जातियों व दलितों में नायकत्व की पहचान कर रहे हैं। प्रेमचंद की वैचारिकी को आगे तक ले जाने वालों में राजेन्द्र यादव की अहम् भूमिका 'हंस' के मार्फत रही है। किन्तु राजेन्द्र यादव को संपूर्णता में देखा जाए तो वे हिन्दी साहित्य में अपनी अलग दर्शन दृष्टि विकसित करने के लिए काफी ख्यात व बदनाम भी हुए जहाँ प्रगतिशीलता का मायने 'दलितों' व 'स्त्रियों' की मुक्ति से जोड़कर देखा जाने लगा है। राजेन्द्र यादव हिन्दी के एकमात्र ऐसे लेखक हैं, जिनके भीतर जीवन के अंत-अंत तक यह कसक बनी रही कि कुशवाहाक कुशवाहाकान्त का मूल्यांकन अबतक नहीं हुआ, उनके व उनकी रचनाओं के प्रति साहित्य-लेखकों की उदासीनता घोर आपत्ति जनक है। न जाने क्यों राजेन्द्र यादव जैसे लोग कुशवाहाकान्त की रचनाओं पर जहाँ रीझे नज़र आते हैं, वही गोपाल राय जैसे हिन्दी आलोचक कुशवाहाकान्त के महत्त्व को तो समझते हैं; किन्तु उनकी रचनाओं पर बोलने से कतराते हैं? वहीं हिन्दी आलोचना को जनपक्ष से जोड़ने वाले आलोचक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह कुशवाहाकांत के प्रति काफी सकरात्मक रहे हैं इन्होंने हिन्दी साहित्य में 'ओबीसी साहित्य' की नई अवधारणा विकसित की है। हिन्दी कथा-साहित्य में प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा जनपक्ष जिन लेखकों में उभरकर सामने आया है, उनमें मधुकर सिंह, बनाफर चन्द्र, अनंत कुमार सिंह, नीरज सिंह, सूर्यनाथ सिंह, ललन प्रसाद सिंह, सी, डी सिंह, सुभाषचंद्र कुशवाहा आदि मुख्य हैं। जिनमें बनाफर चन्द्र ने अपने उपन्यासों, कहानियों व कविताओं में ग्रामीण संस्कृति का बेजोड़ प्रतिमान स्थापित किया है, जो निम्न मध्यवर्गीय संघर्ष की मिसाल हैं। वहीं कविता के क्षेत्र में जगदीश नलिन ने अपने अंदाज व मुहावरेदार शैली से हिन्दी कविता में नया रंग, प्रेम का घोल दिए हैं। तो रमेश्वर प्रशान्त ने जनवादी कविताओं के द्वारा शोषकों को फटकारा व ललकारा है। इससे उनकी जनपक्षधरता बिल्कुल स्पष्ट नज़र आती है। किन्तु हिन्दी व भोजपुरी के रचनाकर ब्रह्मेश्वर तिवारी के यहाँ जनलोकोक्तियाँ तो विद्यमान हैं, पर उनका विवेचन जन-भावना को कम, धर्मभावना को ज्यादा पुष्ट करता हैं, इसलिए वे अच्छे भाषा के मालिक होते हुए भी जन-चेतना को मजबूत धार देने से वंचित रह जाते हैं पर उनके नाटक इसके विपरीत हैं। युवा रचनाकारों में सुधीर मौर्य का औपन्यासिक दृष्टिकोण वर्गीय दृष्टिकोण का पर्याय बन गया है, जबकि वे उपन्यास की विषय-वस्तु वैदिककालीन समाज के संघर्ष को बनाते हैं। वे घोषित तौर पर वामपंथी चेतना के रचनाकार नहीं होते हुए भी 'डायलेक्टिस' के सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वहीं आलोचना के क्षेत्र में रमेश ऋतंभर व अनिता नायर दो ऐसे नाम हैं, जिनके आलोचना के केन्द्र में हाशिए का पक्ष बखूबी उभरा है। अनिता नायर ने तो कविता के क्षेत्र में स्त्री की भूमिका पर जितना बड़ा काम किया है, उससे भारतीय स्त्रियों के भीतर की चेतना व प्रतिभा की मिसाल कायम होती नज़र आती है।
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