के. का. शास्त्री नाम से प्रख्यात, गुजरात के मूर्धन्य विद्वान, आचार्य केशवराम काशीराम शास्त्री का परिचय गुजरात के लोगों को देने की अवश्यकता नहीं है, किन्तु हिन्दीसेवी संसार भी उनके विलक्षण व्यक्तित्व और विपुल कृतित्व का सर्वांगीण परिचय प्राप्त कर सके, इसलिए उनके उदधि से अथाह जीवन और कवन को अंजुलि में समेटने का हम यथाशक्ति प्रयास करेंगे ।
ऋषितुल्य शास्त्रीजी जीवन के तिरानवें वसंत देख चुके हैं। छः वर्ष बाद वे सौवें वर्ष में प्रवेश करेंगे। शास्त्रीजी में वृद्धत्व और यौवन का, प्राचीन और नवीन का, विद्वत्ता और विनम्रता का, ज्ञान और भक्ति का तथा प्रतिभा और परिश्रम का ऐसा अद्भुत समन्वय है कि जिसे सराहते ही बनता है। गुजरात के भक्तकवि नरसिंह मेहता ने वैष्णवजन के जो लक्षण कहे हैं, वे सब शास्त्री जी में विद्यमान हैं। वे परदुःखकातर, परोपकारी, निःस्पृह, निरभिमानी, निर्लोभी और निर्मल मन के महानुभाव हैं। गुजराती साहित्यकारों में उन्हें अजातशत्रु कहा जाता हैं।
शास्त्री जी का जन्म माँगरोल (सौराष्ट्र) में शुक्रवार, २८ जुलाई १९०५ में हुआ। इनके पिता पं. काशीरामजी बांभणिया संस्कृत पाठशाला में अध्यापक थे । शास्त्रीजी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उन्हीं की देखरेख में हुई। सन् १९२२ में राजकोट से इन्होंने "मैट्रिक्यूलेशन" की परीक्षा पास की और संस्कृत "मध्यमा" में उत्तीर्ण हुए। उसके बाद वे उच्च शिक्षण के लिए बम्बई गए, किन्तु वहाँ की जलवायु उन्हें अनुकूल नहीं आई इसलिए वे पुनः माँगरोल लौट आए और संस्कृत पाठशाला में अध्यापक हो गए। सन् १९२५ से १९३६ तक वे कॉरोनेशन हाईस्कूल में अध्यापक रहे । तत्पश्चात् १९३६ में पं. के. का. शास्त्री अहमदाबाद आ गए और वहीं बस गए। यहीं से उनके अध्ययन, अध्यापन और साहित्य-सृजन का विधिवत् शुभारंभ हुआ। वे गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी में संशोधक पद पर नियुक्त हुए । इस पद पर काम करते हुए उन्होंने 'गुजराती की हस्तलिखित प्रतियों की सूची' तैयार की और 'कविचरित' जैसा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ दो भागों में प्रकाशित किया । शास्त्रीजी की विद्वत्ता और साहित्यक्षेत्र में उनके प्रदान को देखकर सन् १९४४ में बम्बई विश्वविद्यालय ने उन्हें पी. जी. टीचर के रूप में, स्नातकोत्तर शिक्षण के लिए मान्यता प्रदान की और वे 'भो. जे. विद्याभवन' में गुजराती के प्राध्यापक हो गए । सन् १९५३ में गुजरात युनिवर्सिटी ने उन्हें पी-एच. डी. गाइड की मान्यता प्रदान की। तभी से वे शोध छात्रों का निर्देशन करते चले आ रहे हैं। अब तक १९ छात्र उनके निर्देशन में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके शास्त्रीजी का व्यक्तित्व, आज ९३ वर्ष की आयु में भी आकर्षक है।
लालबहादुर शास्त्री के जैसा छोटा-सा नन्हा कद, महाप्रभुओं, गोस्वामियों के जैसा गौरवर्ण, आबदार मोती के जैसे चमकती आँखें, प्रशस्त भाल पर पुष्टिमार्गी लाल तिलक, नुकीली नासिका, पतले होंठों पर सहज स्मित, शास्त्रीजी के आकर्षक व्यक्तित्व की विशेषता है। पोशाक में माथे पर टोपी, छरहरे बदन पर श्वेत बगलबंदी और धोती, हाथ में छड़ी, पग में पगरखी या चप्पल, चाल में ९३ वर्ष की आयु में भी युवकों को लजानेवाली चपलता और वाणी में ओजस्विता को देखकर लगता है कि वार्धक्य शास्त्रीजी के निकट आने का साहस नहीं कर पा रहा है।
शास्त्रीजी खान-पान और आचार-विचार में पुष्टिपथानुयायी 'वैष्णव' हैं । वे प्रतिदिन प्रातः कीर्तन के लिए वल्लभ संप्रदाय के मंदिर में जाते हैं। वहां पर तन्मय होकर रागरागिनियों में निबद्ध पद-भजन गाते हैं या पखावज पर कीर्तनियों की संगत करते हैं। मंदिर से लौटने के बाद बारह से चौदह घंटे अध्ययन, अनुशीलन, लेखन में व्यतीत करते हैं। सायंकाल के समय वे सभा समितियों की बैठकों में जाते हैं। इस प्रकार जीवन के दसवें दशक में भी शास्त्रीजी प्रवृत्तिमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनका जीवन विद्वानों और साहित्य-सेवियों के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है ।
शास्त्रीजी का जीवन और रहनसहन अत्यंत सादा है। उनकी आवश्यकताएँ सीमित हैं। वे आडंबरहीन, प्रामाणिक और निर्भीक व्यक्ति है। पांडित्य उन्हें विरासत में मिला है। प्रतिभा ईश्वरप्रदत्त है। बहुज्ञता उन्हें सुदीर्घ अध्ययन, अनुशीलन से प्राप्त हुई है। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी है। वे एक साथ भाषाविद्, वैयाकरण, कोशकार, दार्शनिक, संगीतज्ञ, समीक्षक, संशोधक, संपादक और साहित्यकार, इतिहासकार, पुरातत्त्वविद् और परमवैष्णव भक्त हैं। प्राचीन भाषाओं के वे पंडित हैं। प्राचीन लिपि के वे विशेषज्ञ हैं। वेद, पुराण उपनिषदों के ज्ञाता हैं । ललित कलाओं में वे काव्य और संगीत के तो वे निष्णात हैं ही. मूर्ति, चित्र, स्थापत्य में भी उनकी गहरी रुचि है। प्राचीन और मध्यकालीन गुजराती साहित्य के वे अधिकारी विद्वान हैं। 'अनुग्रह' और 'पथिक' जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के वे संपादक हैं। कहने का तात्पर्य यह कि शास्त्रीजी पौराणिक एवं ऐतिहासिक ज्ञान के चलते-फिरते विश्वकोश, वॉकी-टॉकी-एनसाइक्लोपीडिया हैं ।
पं. के. का. शास्त्री उन सौभाग्यशाली महानुभावों में से हैं, जिन्हें अपने जीवनकाल में बीसवीं सदी में हुए महापुरुषों के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला है। राष्ट्रपुरुषों में महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, फखुद्दीन अली अहमद, दादा साहब मावलंकर और साहित्यकारों में काका कालेलकर, कन्हैयालाल मुन्शी, मुनि जिनविजय, उमाशंकर जोशी, पं. बेचरदास, डॉ. प्रबोध पंडित, डॉ. भोगीलाल सांडेसरा, रसिकलाल छो. परीख, जितेन्द्र जेतली आदि के वे प्रगाढ़ परिचय में रहे हैं। हिन्दी साहित्यकारों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ दशरथ ओझा, डॉ. कुँवर चंद्र प्रकाश सिंह, डॉ. प्रभात, डॉ. जगदीश गुप्त आदि शास्त्रीजी के परिचितों, प्रशंसकों में उल्लेखनीय हैं ।
शास्त्रीजी को अपने जीवनकाल में अनेक सम्मान मिले हैं। राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् के हाथों उन्हें सन् १९६६ में 'विद्यावाचस्पति' की उपाधि मिली, राष्ट्रपति फखुद्दीन अली अहमद के हाथों उन्हें सन् १९७६ में 'पद्मश्री' की उपाधि मिली। भारतीय परिषद प्रयाग ने सन् १९७७ में उन्हें 'महामहिमोपाध्याय' की उपाधि से अलंकृत किया। सौराष्ट्र युनिवर्सिटी ने उन्हें सन् १९९१ में ससम्मान 'डी. लिट्. की' उपाधि प्रदान की। सन् १९९६ में सुदामापुरी के नागरिकों ने भागवताचार्य एवं पं. रमेश ओझा के तत्त्वावधान में 'ब्रह्मर्षि' की पदवी दी। इसके अतिरिक्त गुजरात साहित्य अकादमी, गुजराती साहित्य परिषद्, इतिहास परिषद्, संस्कृत परिषद्, हिन्दी साहित्य परिषद्, हिन्दी साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं ने उन्हें पुरस्कृत एवं सम्मानित किया। गुजरात के बाहर, देश के विभिन्न क्षेत्रों एवं विदेशों में भी वे सम्मानित पुरस्कृत हुए ।
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