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कजली साहित्य का इतिहास- History of Kajli Literature

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Specifications
Publisher: Narayan Prakashan, Varanasi
Author Hiralal Mishra Madhukar
Language: Hindi and Sanskrit
Pages: 356
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 530 gm
Edition: 2022
ISBN: 9788194478171
HBQ799
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Book Description

भूमिका

कजरी साहित्य का इतिहास :

इतिहास-निर्माता एक उत्कृष्ट ग्रन्थ

डॉ. अर्जुन तिवारी

लोक मानव-जीवन का महासमुद्र है जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है। लोक अपने में समग्र समाज है। लोकतंत्र, लोक-कल्याण, लोकवाणी में समस्त समाज का हित निहित है। लोक साहित्य वह निर्मल दर्पण है जिसमें जनता-जनार्दन का विराट रूप दिखायी पड़ता है। लोक साहित्य ही गुरुणां गुरु है जैसा कि गुरुवर नामवर सिंह प्रायः कहा करते थे-

"जब-जब कवि-प्रतिभा मन्द पड़ जाती है, प्रजा का उत्साह क्षीण होने लगता है और शिक्षा का निर्झर सूखने लगता है, तब-तब देश के नेतागण लोक साहित्य रूपी गंगोत्री के पास जाकर तपश्चर्या करते देखे गये हैं। चाहे शेक्सपीयर से पूछो, चाहे शिलर से वह यही कहेंगे कि लोक साहित्य ही तुम्हारा गुरु है।"

महान विचारकों की दृष्टि में लोक इस धरा का वह वर्ग है जो पाण्डित्य से दूर पावन परम्परा के प्रवाह में जीवित है। लोक में असीमित रस है, मौलिकता है, नवीन आलोक है। इसका अध्ययन जन-जन की चेतना और चिंतन का नेत्र है जिसका आश्रय पाकर रचनाधर्मी साहित्यकार युग-द्रष्टा, युग-स्रष्टा बन जाता है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-

"लोकगीतों की एक-एक बहू के चित्रण पर रीतिकाल की सौ-सौ मुग्धाएँ, खण्डिताएँ और धीराएँ निछावर की जा सकती हैं क्योंकि वे निरलंकार होने पर भी प्राणमयी हैं और अलंकारों से लदी हुई भी निष्प्राण हैं। ये अपने जीवन में किसी शास्त्र विशेष की मुखापेक्षी नहीं। ये अपने आप में परिपूर्ण हैं।"

लोक साहित्य के पूरे परिदृश्य को देखने पर सुस्पष्ट होगा कि वह लोक-जीवन का एक अंगभूत वाङ्मय है जिसका मूल प्रयोजन जीवन के विविध व्यापार से जुड़ा हुआ है। चाहे वह दैनन्दिन श्रम का कार्य हो, खेती या व्यवसाय से सम्बन्धित कार्य हो चाहे कोई मांगलिक अवसर हो या पर्व, त्योहार हो, किसी न किसी के साथ उनकी लय मिली हुई है। चक्की के गीत की टेक 'हो राम' वहीं रुकती है जहाँ एक घानी पूरी होती है। त्रऋतु गीतों की टेक भी झूले के पेंग के साथ तालबद्ध होती है। संस्कार गीतों में जातीय चेतना और पारिवारिक स्नेह-वितान की आश्वस्तता रहती है, श्रमगीतों में मानव-नियति की करुणा उद्वेलित होती है और उसी के साथ सामाजिक व्यवस्था की निर्ममता की चिन्ता भी प्रतिध्वनित होती है।

'लोक गीतों की रानी कजरी ऋतु गीत है, उत्सव-उत्साह-धर्मी पर्व है। सावन-भादों में कजरी गाने एवं खेलने का अपूर्व आनन्द है। साहित्य और संगीत के अनूठे तत्वों से भरपूर कजरी 'लोक लाभ परलोक निवाहूं' का माध्यम है।' मंत्रवत् शब्दों में कजरी की महत्ता प्रतिपादित कर श्रद्धेय हीरालाल मिश्र 'मधुकर' ने अपने शोध ग्रंथ में 'कजरी साहित्य का इतिहास' प्रस्तुत किया है। 'ऋग्वेद', 'शब्दकल्पद्रुम', 'ब्राह्मण अन्य', 'मेघदूत' जैसे ग्रन्थों के आधार पर 'मधुकर' जी ने वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसी, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, भवदेव पाण्डेय के विवेचन के गुण-दोष पर मंथन कर कजरी की प्रामाणिक व्याख्या को उपस्थित किया है। इस लोकोपयोगी कृति में दन्त कथाएँ मनोरंजन हेतु नहीं उद्धृत की गई हैं अपितु शास्त्रीय पद्धति से शब्द विश्लेषण के पश्चात् अकाट्य निष्कर्ष की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है। लेखक 'मधुकर' जी के अनुसार कजरी रमणीय मधुर गीत है जिसमें लावनी, मलार, बरवै, पहाड़ी, कामोद, तिलक, सावनी, बिरहा की भाव-भंगिमा सुनियोजित हैं। बारहमासा, छमासा, चौमासा, झूला, बिरहा, चाँचर, आल्हा, बरसाती आदि विविध पर्व-त्योहारों के अलग-अलग गीत जन-जन में रमें हुए हैं। सभी को सोदाहरण समझाकर ग्रंथ लेखक ने लोकगीत की महत्ता को सुस्पष्ट किया है।

प्राथित साहित्यकार श्री 'मधुकर' जी ने एक अप्रतिम इतिहासकार के रूप में उ‌द्घोषित किया है कि कजरी की उत्पत्ति का श्रेय मीरजापुर जिले को है। मीरजापुर कजरी के अंत में 'ना' तथा 'हरी' के प्रयोग की अधिकता से यह तथ्य स्वयंसिद्ध है। ऐसे तो बुन्देलखण्ड से भी कजरी का गहरा सम्बन्ध है। कजरी मेला यहाँ की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है।

नगर महोबो ना देखौ, न देखौ किरतुआ ताल।

सावन कजरियाँ न देखी, न देखी चंदेलन फाग।।

कजरी के साहित्यिक संदर्भ में श्री मिश्र जी ने भर्तृहरी, भारतेन्दु, प्रेमघन, अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, बहादुरशाह 'जफर', किशोरी दास गोस्वामी, बालकृष्ण भट्ट, भोलानाथ गहमरी, महेन्द्र मिश्र, भिखारी ठाकुर की अनमोल रचनाओं को उद्धृत कर लोक भाषा की गुरुता, प्रौढ़ता, प्राञ्जलता को प्रस्तुत किया है। 'धार्मिक एकता और लोकगीत कजरी', 'सामाजिक समरसता और कजरी', 'राष्ट्रीय एकता और कजरी', राजनीतिक एकता एवं कजरी', 'भारतीय दर्शन एवं कजरी', कजरी और पर्यावरण', 'कजरी पर फिल्मी धुनों का प्रभाव' जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत कजरी के समस्त अंग-उपांग की चर्चा को उदाहरणों के साथ पुष्ट किया गया है।

'कजरी साहित्य के इतिहास' को विभिन्न रूपों में उपादेय बनाना संकलन, पाठ-निरूपण, वर्गीकरण, विश्लेषण आदि के कष्टसाध्य, समय साध्य, श्रमसाध्य चरणों से गुजरते हुए इस ग्रन्थ की प्रस्तुति में श्री 'मधुकर' जी का जो अध्यवसाय दृष्टिगत होता है वह हर माने में प्रशंसनीय है। 'मीरजापुरी कजरी का छंदशास्त्र' अध्याय के अन्तर्गत 62 कजली को उपस्थापित कर श्री मिश्र जी ने कजरी की जाति, उसका वर्ण, छंद, यति को निरुपित कर उसका सटीक उदाहरण भी दिया है-

करम, धरम, जप, तप मख अब कर, जनम सफल कर, मचल मचल कर।

(डमरू छंद)

सँभल के जग में करना कारोबार बलमू।

है इस काया का कारीगर होशियार बलमू ।।

(काया छंद)

'कजरी साहित्य का इतिहास' के पन्ने पलटते समय मुझे बार-बार मार्क ट्वेन की बातें याद आ रही थीं-

"भारत मानव जाति का पालना, मानव भाषा की जन्मस्थली, इतिहास की जननी, पौराणिक कथाओं की दादी और परम्परा की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सर्वाधिक मूल्यवान और सर्वाधिक शिक्षाप्रद सामग्री का खजाना केवल भारत में निहित है।"

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