श्रीहरिः ।
कस्यचित्किमपि नो हरणीयं मम्र्म्मवाक्यमपि नोऽच्चरणीयम्
श्रीपतेः पदयुगं स्मरणीयं लीलया भवनिधिं तरणीयम् ।
भारतवर्ष के प्राचीन विद्वान ग्रंथारंभ में मंगलाचरण किया करते थे, कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए इष्टदेव की प्रार्थना करते थे और पुस्तक रचना में अपनी अयोग्यता दिखलाकर शिष्ट समुदाय से अपनी धृष्टता पर क्षमा मांगते थे। अब वे बातें भूमिका में बदल गईं। अब थोड़ों को छोड़कर न कहीं वह मंगलाचरण है, न वह वंदना है और न वह क्षमा-प्रार्थना। अब है प्रायः देशोन्नति की डींगें, परोपकार का आभास और आत्मश्लाघा की झलक, किंतु मुझ जैसा पांचवां सवार न 'मंगलाचरण' करने में समर्थ है और न मुझमें भूमिका लिखने ही की योग्यता है। परंतु आजकल के सभ्य समाज में जब भूमिका लिखने का एक तरह का फैशन है और जब इस बिना पोथी अधूरी समझी जाती है तब इस विषय में थोड़ा बहुत लिखना ही पड़ेगा।
अब बुरी और भली जैसी कुछ है-यह पोथी प्यारे पाठक-पठिकाओं के सामने है तब इसमें क्या है सो बतलाने की आवश्यकता ही क्या है? हां! इतना में कह सकता हूं कि जिस उद्देश्य से मैंने अब तक और उपन्यास लिखे हैं उसी से यह आदर्श हिंदू भी लिखा है। इसमें तीर्थयात्रा के व्याज से, एक ब्राह्मणकुटुंब में सनातन धर्म का दिग्दर्शन, हिंदूपन का नमूना, आजकल की त्रुटियां, राजभक्ति का स्वरूप, परमेश्वर की भक्ति का आदर्श और अपने विचारों की बानगी प्रकाशित करने का प्रयत्न किया गया है। यदि इस पुस्तक में मैं आदर्श हिंदू का अच्छा खाका तैयार कर सका तो मेरा सौभाग्य और पाठकों की उदारता और यदि मैं फेल हो गया तो मेरा यह प्रयत्न धरती में पड़े-पड़े आकाशग्रहण करने के समान है ही। हां! मेरी नम्र प्रार्थना है कि जो महानुभाव मेरी पुस्तकों को पसंद करते हैं वे इसे भी निज जन की जान अपनायें और जो हंसबुद्धि से समालोचना करने वाले महाशय हैं वे इसकी त्रुटियां दिखलाकर मेरे लिए पथप्रदर्शक बनने का अनुग्रह करें।
श्रीमान महाराव राजा सर रघुवीर सिंह जी साहब बहादुर जी.सी.आई.ई., जी.सी. वी.ओ., के.सी.एस.आई. बूंदीनरेश को मैं किन शब्दों में धन्यवाद दूं? मैं असमर्थ हूं। इस पुस्तक का अकिंचन लेखक उन महानुभाव का चिराश्रित है, उनकी मुझ पर वर्द्धमती कृपा है और उन्हीं की सेवा में संवत् 1969 में मुझे उनके साथ श्री जगदीश पुरी की यात्रा का अलौकिक आनंद प्राप्त हुआ था। बस उसी यात्रा के अनुभव से इस पुस्तक-रचना का बीजारोपण हुआ। उस बीज को प्रेमवारि से सींचकर भरतपुर राज्य के वकील मेरे प्रिय मित्र पंडित फतहसिंह जी ने फलित और पल्लवित करने के लिए समय-समय पर सत्परामर्श से, तथा सामग्री देकर मेरी सहायता की। उनके लिए मेरा हार्दिक धन्यवाद है। बस यही संक्षेप से इस पोथी का इतिहास है।
परमेश्वर का लाख-लाख धन्यवाद है कि उसकी अपार दया से हम भारतवासियों को ब्रिटिश गवर्मेंट की उदार छाया में निवास करके हजारों वर्षों के अनंतर सच्चे शांति सुख के अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस असाधारण शांति और उदारता के जमाने में सरकार से भारतवासियों को जो बोलने और लिखने की अभूतपूर्व स्वतंत्रता प्राप्त है उसका सदुपयोग होना ही इस अकिंचन लेखक को इष्ट है। भगवान सब को सुमति प्रदान करे और वे इस भूमिका के शीर्षक पर लिखे हुए श्लोक का अनुसरण करें यही नम्र प्रार्थना है।
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