महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा 15 मार्च 2011 को एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। विषय था- '21वीं सदी की कविता: संवेदना के नये स्वर।'
यदि देखा जाय तो हर युग, हर काल का कवि अपने समय के परिवेश और परिस्थितियों से सरोकर रखता ही है, अन्तर सिर्फ यह होता है कि उसके सरोकर को उसकी परिस्थितिजन्य विवशताएँ किस हद तक प्रभावित कर रही होती हैं एवं उस काल की राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक विचार-सत्ता ने समाज की सामूहिक चेतना को किस दिशा में नियंत्रित किया होता है।
यही कारण है कि प्राचीन युग में जिसे हम राज-सत्ता और धर्म-सत्ता का युग भी कह सकते हैं, कवि की रचना धर्मिता राजप्रशस्ति या आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन को विश्लेषित करने की दिशा में ही अग्रसर थी।
काल निरन्तर गतिमान होता है एवं उसी अनुरूप परिस्थितियाँ भी निरन्तर बदलती रहती हैं एवं वैचारिक धारणाएँ भी। कवि के सरोकार भी उसी रूप में बदलते रहते हैं एवं संवेदना के नये धरातल खुलते चले जाते हैं।
समाज में आये परिवर्तनों में उसके आर्थिक कारणों की अहम् भूमिका रहती है एवं यह परिवर्तन राजनीतिक परिवर्तन पर मुख्य रूप से निर्भर करता है। भारत में भी अंग्रेजी शासन की नीव पड़ने के साथ ही समाज में आधुनिकता की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी। एक तरफ आधुनिकता की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तो दूसरी तरफ मिशनरी धर्म का प्रचार भी साथ साथ ही हुआ। परिणामतः एक तरफ आधुनिकता ने कई पुरातन रूढ़ियों, कुरीतियों की तरफ ध्यान खींचा तो दूसरी तरफ अपनी संस्कृति की महत्ता, स्वतंत्रता की चेतना का भी उदय हुआ। कवि इन सब परिस्थितियों और परिवर्तनों से प्रभावित होता रहा एवं उसकी सचेतनता ने वैचारिकी के विविध सोपान खोले।
भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, छायावाद युग, छायावादोत्तर युग के कवियों में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों से उत्पन्न सरोकार विभिन्न धाराओं में अभिव्यक्त हुआ।
विश्व धरातल पर कई देशों में मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित जन संघर्ष सर्वहारा को शक्ति प्रदान कर रहा था। हमारा कवि भी इन परिवर्तनों को देख रहा था। अपने समाज की आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक विसंगतियों के प्रति वह सचेत हुआ जिसकी परिणति प्रगतिवादी कविताओं से होती हुई प्रयोग वादी एवं नयी कविता के सरोकारों में फलीभूत हुई। सामाजिक यथार्थ व्यक्ति सत्य, मानसिक संघर्ष से उत्पन्न जड़ता, अनास्था, पराजय की अभिव्यक्ति, 'जीवन को स्वीकार करते हुए उसे भोगने की लालसा' ये कवि के सरोकार ही अभिव्यक्त करता है। परिवेश और परिस्थितियों की सच्ची अनुभूति उसे समकालीन सरोकार से जोड़ती है और देश काल की परिवर्तित परिस्थतियों से उत्पन्न पीड़ा के नये दंश उसे उनके प्रति संवेदनशील बनाता है और उस संवेदना को अभिव्यक्त कर वह एक तरफ अपनी पीड़ा को दर्ज भी करता है और दूसरी तरफ उस संवेदना का विस्तार भी। विश्व परिदृश्य पिछले दो तीन दशकों में तेज़ी से परिवर्तित हुआ है जबकि इसकी प्रक्रिया उद्योगीकरण एवं उससे उत्पन्न आधुनिक एवं उत्तर आधुनिक दर्शन में प्रारम्भ हो गयी थी। आधुनिक और उत्तर आधुनिक दर्शन-चिन्तन बदलते राजनैतिक-आर्थिक मूल्य बोध का प्रतिफलन रहा है। जिसने मनुष्य के मनुष्य होने के सारे मापदंडों को धराशायी कर दिया है और उसे एक विशिष्ट जैविक विकसित प्राणी मात्र बना दिया है। आज भूमण्डलीय संस्कृति और उससे उत्पन्न मानवीय संकट इस तथ्य की भी पुष्टि करने लगा है कि उत्तर आधुनिक चिन्तन ने भूमण्डलीय साम्राज्यवादी ताकतों को फलने-फूलने के लिए एक भूमिका तैयार की जिसमें सांस्कृतिक परंपरागत मूल्यों के खारिज होने की घोषणा की गई। इतिहास का अंत, महा वृत्तांतों का अंत, कविता का अंत, समाज की अवधारणा का अंत आदि-आदि कई घोषणाओं ने भारतीय साहित्यकार और आलोचकों को भी इस आँधी की चपेट में ले लिया एवं अंधाधुंध उसे नियति समझकर स्वीकार भी कर लिया गया जिसके परिणामस्वरूप बहुत आसानी से एक उपयोगितावादी, बाजार की संस्कृति ने मानव को अपनी चपेट में ले लिया। पिछली शताब्दी का कविता साहित्य मूल्यों के प्रति विद्रोह, आक्रोश, संस्कृति एवं परंपराओं का प्रहार, हताशा, खंडित मनुष्य, विसंगति, विडम्बनाओं का लेखा-जोखा रहा। आधुनिकता से उत्तर आधुनिक जीवन के बदलते स्वरूप का भुक्तभोगी कवि हृदय एवं उसका बौद्धिक चिंतन मानव जीवन से जुड़ी मानस भूमि की अनिवार्यताओं का मूल्यांकन अपने जमीनी परिवेश से जोड़कर नए सिरे से कर रहा है भारतीय संस्कृति, जीवन शैली, सामाजिक संरचना के टूटते परिदृश्य का दर्द, अपनी मिट्टी और घर का स्मृति-दंश, आज के कवि को पुनः नए सिरे से सृजन की, चिंतन की भूमि दे रहा है। समकालीन कवि उदय प्रकाश, अरुण कमल, कुमार कृष्ण, राजेश जोशी, कुमार अम्बुज, ज्ञानेन्द्रपति, नरेश जैन, मंगलेश डबराल, बोधिसत्व, डॉ० अग्निशेखर, महाराज कृष्ण भरत, महाराज कृष्ण संतोषी, क्षमा कौल, निर्मला पुतुल, प्रभा मजूमदार, शशि शेखर तोषरवानी आदि अपने समय से रूबरू होकर अपनी अभिव्यक्ति से उद्वेलित करने की क्षमता रखते हैं। बदला हुआ परिवेश उन्हें विचलित भी कर रहा है साथ ही जीवन को बेहतर और जीने लायक बनाने के लिये भूमि भी तैयार कर रहा है।
21वीं सदी का समकालीन सरोकार, उसकी चिन्ता, परम्परित अपरम्परित रिश्तों से, चीजों से उसका जुड़ाव, परिवर्तित स्थितियों के पुनर्मूल्यांकन की छटपटाहट एवं उसमें से उभरते आस्था के स्वर को दर्शाना इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्देश्य था। आज के समय का परिदृश्य कितना ही उहापोह का हो लेकिन 21वीं सदी का कवि आश्वस्त है-'आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगें' इस संगोष्ठी में प्रस्तुत किये गये शोध लेखों को इस पुस्तक के रूप में पेश करते हुए मुझे अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। मैं डॉ० कल्पना, डॉ० कनुभाई, डॉ० शन्नो, डॉ० अज़हर, डॉ० अनीता, एम०पी० पाण्डेय एवं शोधार्थी गौतम, अमिषा की विशेष रूप से आभारी हैं जिनके सहयोग के बिना इस पुस्तक का प्रकाशन संभव नहीं था। आशा है कि हिन्दी विभाग का यह छोटा सा प्रयास सुधी-जनों को पंसद आयेगा।
Hindu (हिंदू धर्म) (13447)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (715)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2074)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1544)
Yoga (योग) (1154)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24553)
History (इतिहास) (8927)
Philosophy (दर्शन) (3592)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist