त करीबन दो साल पहले, जब मैंने मौलाना आजाद से अनुरोध किया था कि वे अपनी आत्मकथा लिखें, तब मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि मुझे उदास मन से इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखनी पड़ेगी, क्योंकि मौलाना अपने जीवन के बारे में लिखना नहीं चाहते थे और उस समय वे किसी भी सूरत में यह काम अपने हाथ में नहीं ले सकते थे; लेकिन जब उन्हें तकों से यह समझाया गया कि चूँकि भारत की आजादी में उनकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, इसलिए यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि आनेवाली पीढ़ी के लिए भारत के स्वतंत्रता संग्राम के ज्वलंत इतिहास को बेबाकी से जनता के सामने लाएँ। इस प्रकार की अनेक दलीलें दी गईं और वे मेरे विश्वास दिलाने पर कि मैं उनके लिए लिखकर उनके काम को आसान कर दूँगा, लेकिन इसके लिए उन्हें समय-समय पर मेरे साथ बैठकर आजादी के संग्राम के दिनों को अपने शब्दों में तफसील से कहना होगा। लिखने का भारी काम वे इसलिए भी नहीं करना चाहते थे, क्योंकि उनका स्वास्थ्य इसकी इजाजत नहीं देता था। दूसरे, उनके कंधों पर अब भी अधूरे काम रह गए थे। बहरहाल, वे मेरे सवालों का जवाब देने और अपने संस्मरणों को याद करने के लिए रजामंद हो गए। इसका अर्थ यह था कि वे आम जनता को अपने शब्दों में लिखी गई आत्मकथा से महरूम तो रखेंगे, लेकिन जहाँ तक संभव होगा, मैं इतिहास के तफसील से वर्णन में उनका रोल निभाऊँगा। भारतीय भाषाओं में भी मौलाना अबुल कलाम आजाद की लिखी आत्मकथा की कमी जरूर खलेगी, लेकिन उनके निर्देशन में अंग्रेजी में लिखी गई आत्मकथा इतिहास के खजाने में सिफर के मुकाबले 'कुछ' तो जमापूँजी आरक्षित करेगी।
यह काम किस प्रकार पूरा हुआ है, यह मैं बता देना चाहता हूँ। पिछले लगभग दो सालों के दौरान मैं मौलाना से प्रतिदिन शाम को लगभग एक घंटा बैठकर उनसे इंटरव्यू करता रहा हूँ। इस दौरान नागा केवल उन्हीं दिनों में हुई, जिन दिनों मुझे दिल्ली से बाहर जाना पड़ा। मौलाना बातचीत में बहुत चपल दिखाई दिए और अपने संस्मरणों के बारे में बात करते तो अकसर अपने आप में खो जाया करते थे। मैं उनकी हर बात को नोट करता रहा। मेरे अनुरोध पर वे किसी घटना को ब्योरेवार बताते। इस प्रकार मेरे पास लगभग एक अध्याय की सामग्री तैयार हो गई। मैंने उसे कलमबद्ध करके उनके सामने पेश किया और अनुरोध किया कि वे उसे पढ़कर देखें, जहाँ कमियाँ हों, वहाँ उन्हें पूरा करें और यदि जरूरी हो तो उनमें अपने विचारों को भी जोड़ दें। मुझे खुशी है कि मौलाना ने यह काम बहुत दिलचस्पी से पूरा कर वह 'स्क्रिप्ट' मुझे लौटा दी। इसमें मैंने देखा कि उन्होंने बिना किसी पूर्वग्रह के पूर्ण तर्कों पर आधारित अपने विचारों को लिखा और भारत की आजादी के संग्राम के दौरान उभरे अनेक राजनीतिक, सामाजिक भेदभावों और आपसी रंजिशों के मसलों पर अपनी दो टूक राय को कलमबद्ध किया। उन्होंने मेरे लेखन के मसौदे में जहाँ-तहाँ जरूरी हुआ, भूल-सुधार किया। कई जगह अपने संस्मरणों में जोड़ा और कई जगह मेरी लिखी बातों को बदलकर नया रूप दिया। इस प्रकार पुस्तक का पूरा 'ड्राफ्ट' काफी सुधारों और परिवर्तनों के बाद सितंबर 1957 में पूर्ण रूप से तैयार हो गया।
मैंने पूरे 'ड्राफ्ट' को अंतिम बार पढ़ने के लिए मौलाना आजाद को दे दिया और एक संक्षिप्त यात्रा पर ऑस्ट्रेलिया चला गया। मेरे वापस आने पर मेरी एक बार फिर से मौलाना के साथ 'सिटिंग' शुरू हुई, जिनमें हम दोनों ने स्क्रिप्ट को लाइन-बाई-लाइन के हिसाब से पढ़ना शुरू किया, जहाँ कुछ गलतियाँ रह गई थीं, उन्हें सुधारा, जहाँ-तहाँ भाषा को सुधारा। इस प्रकार प्रत्येक अध्याय को दो से तीन बार पढ़कर अंतिम रूप दिया। इसके बाद मौलाना आजाद के कहने पर फाइनल ड्राफ्ट की एक प्रति सीलबंद कलकत्ता स्थित नेशनल लाइब्रेरी और एक प्रति दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखाकार में जमा कर दी गई। मौलाना चाहते थे कि उनके व्यक्त विचार किसी भी रूप में परिवर्तित न होने पाएँ और आनेवाली पीढ़ी उनके विचारों को इसी रूप में पढ़े, जो उन्होंने अपनी कलम से निर्दिष्ट किया है। उनकी इच्छा थी कि यह पुस्तक नवंबर 1958 में उनके 79वें जन्मदिन के समय जारी की जाए, किंतु भाग्य को यह मंजूर नहीं था, क्योंकि मौलाना इससे पहले ही इस दुनिया से कूच कर गए और प्रकाशन के समय उनका अभाव पूरे देश को बहुत खला।
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