रत्न संसार-जिस प्रकार अन्य जीव-जन्तुओं प्राणियों और वस्तुओं में वैविध्य देखने को मिलता है, उसी प्रकार रत्नों में भी वैविध्य पाया जाता है। रत्न धारण करने से सौभाग्य की वृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति समाज में उचित स्थान प्राप्त करता है, तापत्रय से निवृत्ति मिलती है। विपरीत परिस्थिति से अनुकूल परिस्थिति में, अनुकूल से अनुकूलतम परिस्थिति होने पर व्यक्ति समाज में गौरवान्वित होता है। समाज में उचित स्थान प्राप्त व्यक्ति ही समग्र सुख-सुविधाओं का उपभोग करता है। अपवादों को छोड़कर चुनाव जीतने वालों में से ही मंत्री बनते हैं। चुनाव नैतिक या अनैतिक ढंग से जीते हैं यह अन्य बात है। प्राचीन विद्वान् विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र में लिखा है-
सुवर्णपुष्पां पृथ्वीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः। शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम् ।।
यह वसुन्धरा हिरण्यमयी (सुवर्ण पुष्प के समान) है। इसका उपभोग तीन प्रकार के व्यक्ति करते हैं-
१ शूर अर्थात् योद्धा, जिसे कोई पराजित न कर सकें। ऐसे व्यक्ति चुनाव जीत कर राज्य सम्पदा का उपभोग करते हैं।
२ कृतविद्य अर्थात् जिसने किसी क्षेत्र विशेष में अपनी ख्याति अर्जित की हो। जैसे-तानसेन, कालिदास, पूर्व राष्ट्रपति ए० पी० जे० अब्दुल कलाम, लता मंगेस्कर एवं सचिन तेंदुलकर आदि।
३ यश्च जानाति सेवितुम् जो व्यक्ति सेवाधर्म में निपुण हो अर्थात् चमचागिरी में नम्बर १ हो, वह व्यक्ति भी वसुधा का उपभोग करता है।
वसुधा का उपभोग करना अर्थात् समाज में उचित स्थान प्राप्त करना। उचित स्थान प्राप्ति की अभिलाषा प्रत्येक प्राणी की होती है कि उसे समाज के लोग उच्च आदर्शों के साथ देखें एवं जीवन के पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति उसे हो सके तथा आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक दुःखों से निवृत्ति मिले। यह शरीर पांचभौतिक है- क्षुतजलपावक-गगनसमीरा। अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश। इन पाँच तत्त्वों से मिलकर शरीर बना है। शरीर में इन पाँच तत्त्वों की साम्यावस्था में ही स्वास्थ्य अनुकूल रहता है। इसीलिए कहा जाता है- "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” सभी प्रकार के धर्म साधन में स्वास्थ्य का अनुकूल रहना आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है। स्वस्थ मस्तिष्क से जो कार्य किया जाता है वह उत्तम मनोनुकूल फल देने वाला होता है। इसीलिए सबसे पहले आवश्यक है कि शरीर स्वस्थ हो अर्थात् पंचतत्त्वों की साम्यावस्था बनी रहे। शरीर में वात, पित्त एवं कफ की मात्रा समान हो। इन पाँचों तत्त्वों का सम्बन्ध ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों से है। ग्रहों के रंग, रूप, आकृति एवं प्रकृति निर्धारित है।
ग्रहों के निश्चित रंग को धारण करने से उस ग्रह से निसृतः रश्मियों धारित वस्त्राभूषण एवं रत्न पदार्थ के माध्यम से अर्थतत्त्व की तरह शरीर में प्राप्त होती हैं, जिससे उस ग्रह से सम्बन्धित तत्त्व की कमी की पूर्ति हो जाती है। तत्त्व की पूर्णता होने पर शरीर में साम्यावस्था आ जाती है एवं शरीर के साम्यावस्था में आने पर स्वास्थ्य ठीक रहता है। ये पदार्थ हैं-ग्रह के रंग के वस्त्र, आभूषण, धातु, पदार्थ (हल्दी एवं विल्बपत्र की शाखा, अर्क) आदि। किन्तु इनमें ग्रहों की रश्मियों को अवशोषित कर अर्थ के रूप में शरीर को प्रदान करने की उतनी क्षमता नहीं है। जितनी रत्नों में, इसीलिए उत्तम कोटि के हीरा, पुखराज, नीलम, पन्ना आदि धारण किये जाते हैं। उत्तमकोटि के रत्न ग्रहों की रश्मियों को पर्याप्त मात्रा में प्राप्तकर धारण करने वाले को प्रदान करते हैं, जिससे उसका परिणाम तत्काल दिखाई देता है। यदि रत्नों के स्थान पर उपरत्नों को धारण किया जाता है तो वे इसी सिद्धान्त के अनुसार अपना फल प्रकट करते हैं। उपरत्न होने से उनमें न्यून शक्ति होने के कारण रत्नों की अपेक्षा कम कार्य करते हैं।
वस्तुतः समस्या यह होती है कि कौन सा रत्न धारण करें, जिससे लाभ हो क्योंकि तत्त्व तो पाँच हैं ग्रहों की संख्या ६ है विचित्र स्थिति है एवं गम्भीर प्रश्न है क्योंकि कई बार स्थान भेद से एक ही रोग को एक से अधिक ग्रह देते हैं। इसका प्रस्तुत ग्रन्थ में पृथक् रूप से सांगोपांग विवेचन किया गया है।
ग्रह योग-ग्रह योग अर्थात् राजयोग, जीवन में उत्कृष्ट फल की प्राप्ति। उत्कृष्ट फल किसको कब मिलेगा और निकृष्ट योग का फल कब मिलेगा ? इसका ज्ञान होना आवश्यक है। किसी भी ग्रह का रत्न यावज्जजीवन लाभप्रद नहीं होता है। ग्रह गोचर ग्रह की दशा भुक्ति का समय अपना विशेष लाभप्रद हानिप्रद फल प्रदर्शित करता है। यदि ऐसा न हो तो जिसके उत्तम ग्रह हैं वह हमेशा ही खुशियों के अम्बार में रहे एवं जिसके हानिप्रद ग्रह हों वह हमेशा दुःखी रहे। ग्रहों द्वारा राजयोग एवं मारकेश साथ-साथ चलते हैं क्योंकि जो ग्रह बली होगा वह अपना धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों ही प्रकार का फल प्रदर्शित करेगा। ऐसा हमने राजयोग की कुण्डलियों में प्रायः पाया कि धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा तो परिपूर्ण है परन्तु संतति/स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उदाहरणार्थ यदि एकादश भाव का सूर्य बलवान् है तो पद-प्रतिष्ठा एवं धन-धान्य तो देता है परन्तु संतति सुखविहीन कर देता है। यही सूर्य सप्तम भाव में यदि बलवान् हो तो जातक को भौतिक सुख से परिपूर्ण कर देता है किन्तु दाम्पत्य सुख समाप्त कर देता है। मंगली के विषय में आप सभी सुविज्ञ हैं। न केवल सूर्य, मंगल, अपितु समस्त ग्रहों की एक सी स्थिति है। ज्योतिषशास्त्र इसी बात को बताता है कि कौन सा ग्रह किस क्षेत्र विशेष में लाभप्रद है एवं किस क्षेत्र में हानिप्रद है तथा कब ?
रत्नधारण के कई कारण होते हैं। रत्नों को धारण करते समय यह आवश्यक है कि कौन सा ग्रह किसका कारक है। कारक ग्रह नीच/अस्त/तृतीय/षष्ठ/अष्टम एवं द्वादश में स्थित है तो हानिप्रद है। उच्च का ग्रह कहीं भी स्थित हो तो वह लाभप्रद होगा। लेकिन उपर्युक्त स्थानों पर होने से उस स्थान जनित फल को बढ़ायेगा। जैसे षष्ठेश यदि षष्ठ स्थान में उच्च का हो तो प्रबल शत्रु/रोग देता है। रत्न धारण के सम्बन्ध में विद्वानों में मत बैवितध्य है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि लग्नेश, त्रिकोणेश का रत्न धारण करना चाहिए। क्योंकि स्वास्थ्य, विद्या, संतति एवं भाग्य ठीक है तो सब कुछ ठीक है। कुछ विद्वानों का मानना है कि लग्नेश, त्रिकोणेश और केन्द्रेश का रत्न धारण करना चाहिए। कुछ विद्वान् मानते हैं कि जिसकी महादशा या अन्तर्दशा हो उसका रत्न धारण करना चाहिए। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि जो ग्रह उच्च के हो उनका रत्न धारण करना चाहिए। क्योंकि जो ग्रह शुभफल प्रदान करने वाले होते हैं वे ही शुभफल देते हैं। प्रयोग करने पर ये सभी नियम फलीभूत होते हैं।
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