भौगोलिक दृष्टि से भारत के दक्षिण में स्थित निकटतम पड़ोसी द्वीप श्रीलंका अपने अंक में सम्बन्धों की विलक्षण स्मृतियाँ संजोए हुए है। पालि बौद्ध साहित्य दीपवंस एवं महावंस में श्रीलंका का प्राचीन इतिहास धार्मिक आस्था से समन्वित मिलता है। महावंस टीका के अनुसार 'महानाम' नामक स्थविर (बौद्ध भिक्षु) अशोक के समकालीन श्रीलंका के शासक तिस्स के दीघसन्दन नामक सेनापति द्वारा निर्मित बौद्ध विहार (विहार परिवेण) में रहते थे। 'महानाम' ने चौथी शताब्दी ई० में महावंश की रचना की थी। इस ग्रन्थ में पाँचवी शताब्दी ई० पू० से चौथी शताब्दी ई० तक का श्रीलंका का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास क्रमबद्ध रूप में समाहित है। प्रस्तुत ग्रन्थ 'श्रीलंका के समाज ए वं धर्म पर भारतीय प्रभाव' की अपनी मौलिक विशेषता यह है कि लेखिका ने मूलग्रन्थों के विशिष्ट आलोक में इसका प्रणयन किया है।
वस्तुतः 'अर्थ' जब 'शब्द' का रूप लेते हैं तब ग्रन्थ का निर्माण होता है।
ग्रन्थ सच्चे अर्थों में मानव के अमृत अंश के प्रतीक होते हैं। साहित्य संस्कृति की प्रयोगशाला है। श्रीलंका के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन पर भारतीय प्रभावों को वैज्ञानिक ढंग से निरुपित करने में लेखिका सफल रही है। यह एक श्रमसाध्य प्रयास है। साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के सम्यक् अध्ययन के उपरान्त प्रस्तुत पुस्तक की रचना की गई है।
अशोक के शासन काल में हुए तीसरे बौद्ध महासम्मेलन की सूचना महावंश से मिलती है। इसके अनुसार अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र को पहले व पुत्री संघमित्रा को बाद में बोधिवृक्ष की एक शाखा सहित श्रीलंका भेजा था। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य है कि महेन्द्र एवं संघमित्रा ने न केवल बौद्ध धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया वरन् श्रीलंका में सिचाई की व्यवस्था भी की जिससे वहाँ की ऊसर भूमि भी हरी-भरी होकर उपजाऊ हो गई। श्रीलंका में प्रमुखतः बौद्ध धर्म एवं ब्राह्मण धर्म सम्बन्धी विवरण मिलते है। दूसरी शती ई०पू० में लगभग चौवालिस वर्षों तक श्रीलंका पर शासन करने वाले तमिल शासक 'एलारा' ने न्याय व्यवस्था का विलक्षण उदाहरण प्रस्तुत किया था।
दक्षिण भारत के पाण्डय, पल्लव एवं चोल शासकों के शासन काल में भारत श्रीलंका सम्बन्धों के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं। दक्षिण भारत की संस्कृति एवं कला का व्यापक प्रभाव श्रीलंका पर पड़ा। डॉ० इरा शुक्ला ने इसका सम्यक् विवेचन यथा स्थान प्रस्तुत पुस्तक में किया है। भाषा भावों की अनुगामिनी होती है। भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ भाषा का सरल सुबोध एवं व्याकरण सम्मत होना आवश्यक है। प्रस्तुत पुस्तक में इसका पूरा ध्यान रखा गया है। अपने समग्र रूप में यह अत्यन्त सार्थक प्रथास है। इसके लिए डॉ० इरा शुक्ला साधुवाद एवं आशीर्वाद की अधिकारिणी हैं। मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से भारत-श्रीलंका सम्बन्धों का प्रमाणिक स्वरूप उद्घाटित होगा तथा सम्बन्धों की मधुरता को नया आयाम मिलेगा।
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