लोक कथाएँ भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। जन-जीवन से जुड़ी लोक कथाएँ हमारी सभ्यता और परंपरा को प्रतिबिंबित करती हैं। जब भी मैं लोक कथाएँ सुनती या पढ़ती थी तो कभी यह नहीं सोचा था कि इनको किताब के रूप में ले आऊँगी। एक दशक पहले पेंगुइन यात्रा बुक्स के द्वारा 'भारत की लोक कथाएँ' पुस्तक में लोक कथाएँ लिखने का अवसर मिला। वहाँ से प्रकाशित इस पुस्तक में मेरी छः लोक कथाएँ संकलित हैं। उन्हें लिखते हुए मैंने विश्व के अनेक देशों की लोक कहानियाँ पढ़ीं और उनके भीतर के तत्व और तंतु को पहचाना। तब विस्तार में जाना कि आदिम संस्कृति में वाचिक परंपरा कितनी समृद्ध और लोक व्यापक है। लोक चिंतन, अनुभूति और अभिव्यक्ति भी अनंत है। लोक में अनुभव व ज्ञान को संप्रेषित करने और बाँटने की बलवती इच्छा रहती है यही कारण है कि लोक कथाएँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक की यात्रा करती हैं। अपने-अपने परिवेश के अनुसार उसका स्वरूप बदलता रहता है। लोक कथाओं की विशेषता यह भी है कि इनमें कुछ न कुछ उपदेश निहित रहते हैं, जिनके माध्यम से जन-जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान और लोक कल्याण की बातें लोगों के सामने आती रहती हैं। इस दृष्टि से लोक कथाएँ मानव जीवन में बहुत महत्व रखती हैं।
यहाँ प्रस्तुत कहानियाँ उसी परंपरा से आने वाली कहानियों का विकसित रूप है। लोक कहानियाँ एक पूरी संस्कृति का वहन करती हैं। इनमें जनमानस की आस्थाएँ, विश्वास और आदर्श परिलक्षित होते हैं। समूचे समाज की भावना, आकांक्षा और मंगल कामना इन कथाओं में छिपी होती है। लोक कहानियों के जरिए आज भी वाचिक परंपरा, इतिहास और संस्कृति का संरक्षण हो रहा है।
लोक या जनसामान्य में प्रचलित और परंपरा से चली आने वाली मूलतः मौखिक रूप में प्रसिद्ध कहानी, लोक कहानी कहलाती है। आज लोक साहित्य में ऐसी कहानियाँ भी मिल जाती हैं जो सिर्फ़ कहानी के रूप में लिपिबद्ध की जा चुकी हैं, पर सिर्फ लिख देने से यह लोक कहानी का स्वरूप नहीं छोड़ देतीं। वे मूलतः लोक कथाएँ ही हैं। उन लोक कहानियों से यह भी विदित होता है कि वह मूलतः मौखिक ही थीं।
यहाँ मैं कहीं लोक कहानी और कहीं लोक कथा कह रही हूँ इसके विषय में यहाँ स्पष्ट करना चाहूँगी कि लोक कहानी और लोक कथा के बीच में बहुत बारीक सी विभाजन रेखा है। यह बात अलग है कि साधारण बोलचाल में लोक कहानी को लोक कथा ही कह दिया जाता है। जबकि लोक कथा में कथा शब्द का प्रयोग एक विशेष प्रकार की कहानी के लिए आता है। जैसे यह कहा जाता है कि रामायण की कथा हो रही है। सत्यनारायण की कथा हो रही है। गणेश चौथ की कथा हो रही है। इससे यह प्रकट होता है कि कथा कोई ऐसी वार्ता है जो किसी के द्वारा कह कर सुनाई जाती है। और उसे सुनाने का धार्मिक अभिप्राय होता है।
लोक कहानियों में रूढ़ियाँ तो होती ही हैं और वे रूढ़ियाँ सभी क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से निर्मित हो सकती हैं। लोक कहानियों में सांस्कृतिक सामग्री बहुत होती है और उसमें लोक विश्वासों का भी उल्लेख रहता है। पर यह कहानियाँ सिर्फ और सिर्फ़ किसी प्रकार की धार्मिक संतुष्टि से संबंध नहीं रखतीं। यह इतना झीना सा विभाजन है कि लोक सम्मति और बोलचाल में लोक कहानी और लोक कथा मिलजुल गए हैं।
लोक कथा का उद्भव उतना ही पुराना है जितना मानव सभ्यता का। सृष्टि का पहला कथाकार लोक कथाकार ही रहा होगा पर कहानी के मूल रूप की पुनर्रचना असंभव है। इस पुस्तक में संकलित कहानियों को लिखते हुए मैंने यह ध्यान रखा है कि इनकी भाषा नीरस या बोझिल न लगे। जिस क्षेत्र की हैं वहाँ की सुवास उसमें बची रहे। इसके मूल भाव के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है।
हमारे यहाँ लोक साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। यह लोक साहित्य ही है जिसमें लोक गीत, मुहावरे पहेलियाँ, कहावतें, संस्कार गीत आज भी सुरक्षित हैं। जहाँ लोक कथाएँ, लोक जीवन को मनोरंजन देती हैं वहीं परंपरा और संस्कृति के संरक्षण का गंभीर दायित्व भी इनके ऊपर है। कथाकारों ने अपनी बुद्धि, विवेक और काल की माँग के अनुसार इन कथाओं में परिवर्तित बखान किया होगा।
यहाँ प्रस्तुत लोक कथाएँ पढ़ते हुए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह कहानियाँ दिल बहलाव के लिए बनी हैं। इनकी खूबसूरती का आनंद लिया जाना चाहिए। एक चीनी कहावत है कि "चिड़िया इसलिए नहीं गातीं की उनके पास जवाब हैं। वह गाती हैं, क्योंकि उनके पास गीत हैं।"
यह बात अलग है कि हर कहानी का अपना अंचल, जाति, संदर्भ और प्रभाव होता है। और वही प्रमाणित करता है कि लोक कथाएँ बहुभाषी और विभिन्न संस्कृतियों को संपोषित करती हुई कैसे लंबी यात्रा करके यहाँ तक आई हैं।
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