अपना जीवन-वृत्तान्त सर्वसाधारण के आगे रखना उन उच्चकोटि के महानुभावों को ही शोभा देता है जिन्होंने संसार में किसी न किसी बड़े काम में कृतकार्यता प्राप्त की हो। फिर उत्तम प्रकाशक भी उन्हीं की जीवनी मुद्रित करना उचित समझते हैं जिन्होंने कोई अपूर्व कार्य किया हो, चाहे उस काम से संसार की उन्नति हुई हो या पहले से भी बढ़कर संसार रसातल को चला गया हो। मैं जानता हूँ कि मेरी जीवनकथा दोनों कोटियों में नहीं आ सकती, फिर भी मैंने अपनी कहानी सर्वसाधारण के आगे रखने का साहस क्यों किया ?
अभीं ५० वर्ष भी पूरे नहीं हुए कि भारतवर्ष के नवयुवक सिवाय खाने-पीने, भोगने और उसके लिए धनसंचय करने के अलावा अपना और कुछ कर्तव्य नहीं समझते थे। गुलामी में वह जन्म लेते थे और उस दासता की अवस्था को अनिवार्य समझकर गन्दगी के कीड़ों की तरह उसी में मस्त रहते थे। उन्हें मालूम न था कि उनके पुरुषा भी किसी समय में सभ्यता का स्त्रोत थे। उन्हें यही बतलाया गया था कि भारतीय अर्द्धसभ्य हैं, उनकी कोई संस्कृति थी ही नहीं और यदि वह गिरी हुई अवस्था से उठना चाहते हैं तो योरोपियन सभ्यता की शरण में जाना चाहिए। इस पुस्तक का लेखक स्वयं किन विचारों का था, यह उसकी जीवन-यात्रा की कहानी पढ़ने से विदित होगा।
आचार्य ऋषि दयानन्द ने आर्यावर्त्त की प्राचीन संस्कृति का सजीव चित्र खींचकर न केवल आर्यसन्तान के अन्दर ही आत्मसम्मान का भाव उत्पन्न किया प्रत्युत, योरोपियन विद्वानों को भी उनकी कल्पनाओं की असारता दिखलाकर, चक्कर में डाल दिया। हिन्दू युवक अपने प्रत्येक आचार-व्यवहार को दूषित और योरोपियनों के गिरे से गिरे अत्याचार और दुराचार को भी आदर्श समझा करते थे। मैंने उसी विद्यालय में शिक्षा पाई थी जिसने हिन्दू युवकों को अपनी प्राचीन संस्कृति का शत्रु बना दिया था।
आजकल की भारतीय जनता ५० वर्ष पूर्व का इतिहास पढ़कर उस समय के भारतीय लेखकों को तुच्छ दृष्टि से देखती है और उनके अज्ञान पर आश्चर्य प्रकट करती है और यह समझ बैठी है कि अज्ञान से ज्ञान की ओर आने के बीच में कोई भी मंजिल तय नहीं करनी पड़ी। इसी भूल को दूर करने के लिए मैंने अपनी जीवनयात्रा की कहानी सविस्तार लिख दी है।
इसमें सन्देह नहीं कि मेरी गिरावट की कहानियाँ बहुत-से श्रद्धालु हृदयों को ठेस लगायेंगी, परन्तु मुझे यह विश्वास है कि इस आत्मकथा के पाठ से बहुत युवकों को संसार यात्रा में ठोकरों से बचने की शक्ति मिलेगी।
एक और बात भी है जिसकी ओर विशेष ध्यान दिलाना चाहता हूँ।
ऋषि दयानन्द के लेखों का तत्त्व उन आर्यसमाजियों की समझ में पूर्णतया नहीं आता जिन्होंने आर्यसमाज के यौवनकाल में उसके अन्दर प्रवेश किया है।
अपनी निर्माण की हुई पाठविधि में आचार्य दयानन्द ने 'सर्व भाषा ग्रन्थ' त्याज्य लिखे हैं। इस पर सत्यार्थप्रकाश के तीसरे समुल्लास में इस प्रकार प्रश्नोत्तर हैं- प्रश्न- "क्या इन ग्रन्थों में कुछ भी सत्य नहीं ?"
उत्तर- "थोड़ा सत्य तो है, परन्तु इसके साथ बहुत-सा असत्य भी है इससे जैसे अत्युत्तम अन्न विष से युक्त होने से छोड़ने योग्य होता है वैसे ये ग्रन्थ हैं।"
आचार्य का यह लेख रहस्यपूर्ण है। आजकल कुछ ऐसे आर्यसमाजी भी हैं जो यह समझते हैं कि किसी भी भाषा-ग्रन्थ को पढ़ना न चाहिए। यह उनकी भूल है। ऋषि ने उनमें यत्किञ्चित् सत्य माना है किन्तु बाल्यावस्था में शिक्षा ग्रहण करने के लिए संकेत कर दिया है कि वेदशास्त्रानुकूल नये भाषा ग्रन्थों का निर्माण करना चाहिए। परन्तु जिस प्रकार गृहस्थों के लिए आचार्य ने आज्ञा दी है कि सत्य का मण्डन और असत्य मत का खण्डन सीखकर सदाचारपूर्वक विदेश में जाने से हानि नहीं, उसी प्रकार गुरुकुलों तथा राष्ट्रीय विद्यालयों में भी शिक्षा समाप्त करने के पीछे पुराने भाषा-कवियों के ग्रन्थ पढ़ने से लाभ ही होगा।
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