दुष्यन्त की कहानियाँ फकत इस अर्थ में विशिष्ट नहीं हैं कि वे हिंदी कहानियों की प्रचलित परंपरा से छिटकती हुई, अब तक प्रतिबंधित या वर्जित इलाकों में अद्भुत पठनीयता और उत्तेजना के साथ प्रवेश करती हैं, बल्कि वे जातीय, सामुदायिक और यौनिक टकराहटों को रोचकता और वैचारिकता के साथ पेश करती हैं। वे जोखिम भरी निडरता के साथ हिंदी के समकालीन कथा लेखन के सामने अनुभव, स्थापत्य, भाषा और शैली की नई खिड़कियाँ खोलती हैं। ग्लोबल कॉर्पोरेट पूंजी और टेक्नोलॉजी के असर से बदल चुके मूल्यों और मानवीय रिश्तों को उघाड़ती हुई दुष्यन्त की ये कहानियाँ उस उत्तर-आधुनिक वास्तविकताओं की किस्सागोई हैं, जब धर्म से लेकर राजनीति और पारिवारिक कठोर संविधानों को आज के युवा विदेशी एक्शन फिल्मों, कार रेस, घूंसेबाज़ी, हत्याओं, फ़रेब और तमाम स्पेशल इफ़ेक्टों से भरे ठगी के तमाशे के बतौर देखने लगे हैं। ये किस्से तमाम तरह की पिछली मासूमियतों की मौत की ख़बर देती कहानियाँ हैं।
कभी किसी लेखक ने कहा था कि अगर व्यक्ति और व्यक्ति के बीच हिंसा, व्यभिचार, चोरी, क्रूरता, ठगी, झूठ और धोखाधड़ी को वर्जित कर दिया जाए तो कोई रचना तो क्या, एक छोटी-सी टिप्पणी तक नहीं लिखी जा सकती। दुष्यन्त अपनी कहानियों में आज के समय और यथार्थ पर मार्मिक और तीखी टिप्पणी भर नहीं करते बल्कि किसी किस्सागो के जादुई हुनर में पाठकों को बाँध लेने वाली कहानियाँ, अपूर्व युवा वयस्कता के साथ प्रस्तुत करते हैं।
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