पुस्तक परिचय
डॉ. जयशंकर शुक्ल बड़े अधिकार से हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करते हैं। पिछले चौवीस-पच्चीस वर्षों से साहित्य-सृजन में संलग्न डॉ. शुक्ल का यह नवीनतम शाकार है। काव्य में प्रवन्ध एवं मुक्तक ही तरह की प्रवृत्तियाँ आदिकाल से अपनी उपस्थिति के लिए जानी जाती हैं। दोनों तरह के काव्य-प्रविधियों के शिल्प, विषय, उद्देश्य, प्रवाह, रस, अलंकार आदि का प्रयोग भी स्व अनुरूप होना आवश्यक है। महाभारत एवं रामायण जैसे महाकाव्य तो भारतीय जनमानस के जीवन के प्रत्येक अंगों में रवे-बसे हुए हैं। नाट्यकार भरत ने काव्य-शास्त्र के निरुपण में महाकाव्य को युग का समग्र प्रामाणिक दस्तावेज माना है। कालिदास की कृति में उनका युग मुखर हो उठता है। इसी तरह रासों के रचनाकारों ने अपने काल वैविध्य का वर्णन पूरी कलात्मकता व अलंकारिकता से किया है। ये महाकाव्य युग के प्रवर्तक के जीवन घटनाओं का चित्रण है। गुप्त हों या प्रसाद, मिल्टन हों या वर्डस्वर्थ अपनी रचनाओं में समय, समयानुरूप घटनाओं, परिवेश का वर्णन किया है। ममहाकाव्य में भारतीय काव्य शास्त्र फलागम को आवश्यक मानता है, साथ ही साथ ये नायक में धीरोदात्त गुणों के साथ चारित्रिक सवलता को भी अपेक्षित मानता है। यहाँ पर सुखान्त होना भी एक शर्त मानी जाती है। जबकि पाश्चात्य काव्य शास्त्र में दुःखान्त होना तथा नायक में मानवोचित सीमाओं को भी स्वीकार किया गया है। डॉ. जयशंकर शुक्ल ने अपने काव्य नायक को उसके कूटनीतिक क्षमता साहस, धैर्य, दया, उदारता, वीरता, सत्याचरण के साथ श्रेष्ठ मानवीय सरोकारों से युक्त रचा है। क्रान्तिवीर आजाद डॉ. जयशंकर शुक्ल की लेखनी व कीर्ति को युग-युग तक अमिट रखें, ऐसा मेरा शुभाशीष है।
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