आयुर्वेद शास्त्र जीवन का विज्ञान है। इसकी उत्पत्ति अब से 5000 वर्ष पूर्व मानी जाती है। आयुर्वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी जाती है जिसका परम्परा द्वारा अनुवर्तन होकर भगवान पुनर्वसु आत्रेय को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् अग्निवेश को आयुर्वेद की प्राप्ति हुआ तथा उन्होंने इसे तन्त्र रूप में प्रचारित एवं प्रसारित किया। चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता इस विद्या के प्रधान प्रन्य है। जिसका विषय क्रमशः कायचिकित्सा तथा शल्यचिकित्सा है।
आयुर्वेद का उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का रक्षण तथा रोगी के विकार का प्रशमन करना है। यथा-
प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्नास्वयम् रक्षणं आतुरस्य विकार प्रशमनं च ॥ (च.मू. 30)
स्वस्य रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर के विभित्र यंत्र तथा प्रत्यंग अपना कार्य स्वाभाविक रूप से करते रहे। शरीर के विभिन्न अंगों के स्वाभाविक कार्य का अध्ययन जिस शाख में किया जाता है उसे शरीर क्रिया विज्ञान कहा जाता है। आयुर्वेद शास्त्र का शरीर के विभित्र क्रियाओं (Physiology) के सन्दर्भ में अपना स्वतन्व सिद्धान्त है जिसके आधार पर शरीर के विभित्र क्रियाओं का वर्णन किया गया है। इसके लिए आचार्य सुश्रुत ने निम्न कहा है-
दोष धातु मल मूलं हि शरीरं (सु.सू. 15/3)
दोष धातु मल मूलं हि शरीरं (सु.सू. 15/3) दोष धातु तथा मल को शरीर का मूल या आधार माना है। अर्थात् दोष, धातु तया की विभिन्न क्रियाओं, इनका प्रमाण आदि यदि अपने प्राकृत अवस्था में रहते है तो शरीर स्वस्थ रहता है तथा यदि इनके प्राकृत क्रियाओं या इनकी क्षय या वृद्धि हो जाती है तो रोग की उत्पत्ति होती है। वात, पित्त तथा कफ को शरीर का आधार माना गया है यथा-
वात पित्तश्लेष्माण एवं देह सम्भवहेतवः । तैरेवात्यापन्नैरधोमध्मेऽध्वंसन्त्रि विष्टैः शरीरमिदं धार्यतेऽगार मिव
स्थूणाभिस्तिसृभिरतच त्रिंस्यूणमाहुरेके। त एव च व्यापन्नाः प्रलयहेतवः । (सु.मू. 21/03)
अर्थात् वात पित्त तथा कफ ये तीनों ही शरीर की उत्पत्ति के कारण है। इन्हीं अकुपित तथा नीचे मध्य और ऊपर यथाक्रम से रहने वाले वात, पित्त तथा कफ से यह शरीर धारण किया जाता है जिस प्रकार तीन खम्भों से मकान धारण किया जाता है इसलिए कई आचार्य इस शरीर को त्रिस्यूल कहते हैं। मिथ्या आहार-विहार से प्रकुपित हुए ये ही वातादि दोष शरीर के विनाश में कारण होते है।
उत्साह उच्छवास निश्वास तथा विभिन्न प्रकार की गतियाँ प्राकृत वात के कर्म है। पाचन, परिवर्तन, दर्शन, उष्मा आदि प्राकृत पित्त के कर्म है जबकि स्नेह बन्धन, स्थिरता, छया धृति आदि प्राकृत कफ के कर्म है। धातुओं के विशेष कर्म यथा रस प्रीणन का रक्त जीवन कार्य, मांस शरीर लेपन, मेद स्नेहन, मज्जा धारण अस्यि पूरण तया शुक्र से गर्भ उत्पत्ति कहा गया है। इसी प्रकार पुरीष शरीर का उपस्तम्भन, वायु एवं अग्नि का धारण, मूत्र वस्ति पूर तथा शरीर में आर्द्रता तथा स्वेद का कार्य शरीर में क्लेद तथा त्वचा सुकुमारता करना है। उपरोक्त दोष धातु तथा मल के प्राकृत कार्य, इनके विकृत होने पर इनका कार्य का वर्णन संहिताओं में किया गया है। जिसका अध्ययन एक क्रम में शरीर क्रिया के अन्तर्गत किया जाता है।
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