बात उन दिनों की है जब मैं राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी में निदेशक हुआ करता था। डॉ. अंजू ढड्डा मेरे दफ्तर में किसी काम से आई थीं। चाय पर पुस्तकों के महत्व की चर्चा चल पड़ी तो अपने जीवन में घटित घटना उन्हें सुनाई कि ट्रेन में पढ़ने को मिली एक पुस्तक ने कैसे मेरी जिंदगी बदल दी।
अंजू जी ने ध्यान से उस घटना को सुना और बोलीं, "यह बहुत रोचक है। क्या इस घटना को आप विस्तारपूर्वक लिख सकते हैं?" उस दिन 'किताब' का बीजारोपण हुआ था। वक्त ने उस बीज को जरूरी खाद, पानी, हवा व धूप दी और यह कृति आपके हाथ में है। इसके लिए डॉ. अंजू ढड्डा का ऋणी रहूँगा।
'किताब' की रचना के दौरान पाया कि मेरी ही नहीं, यह देश-दुनिया के उन असंख्य बच्चों की व्यथा-कथा है, जिनको पुस्तकों से वंचित कर दिया गया है।
पहले संस्करण को पढ़ने के बाद पाठकों की तरफ से दो सवाल आए। पहला सवाल इसकी विधा को लेकर था। कुछ ने इसे मेरी आत्मकथा बताया तो कुछ ने कथेतर गद्य कहा। दोनों से मैं सहमत नहीं हूँ।
वस्तुतः, बचपन में घटित इस घटना की प्रेरणा पाठकों को सौंपना चाहता था। लिखने लगा तो रामजी के बचपन की भावभूमि ने स्वतः जगह बना ली। रामजी के संघर्ष की परिणति के बिना इस कथा का कोई अर्थ ही नहीं था, अतः वह भी समाहित हो गई। इस तरह मेरी नजर में यह एक शैक्षणिक उपन्यास है। इसमें उपन्यास के सभी तत्व समाहित हैं। आशा है, समालोचक इसका नोटिस लेंगे। रही शैक्षिक विमर्श की बात, तो वह मेरा साध्य नहीं था। वह कथा में स्वतः विकसित हुआ और आद्योपांत ध्वनित है।
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