एक महान जीवन-चरित केवल अपने ही समय में नहीं जीता, इस जीने के दौरान अपने विचारों और चर्या से अपना एक प्रति-समय या समानान्तर समय भी रचता है जो उसके पश्चात् भी चिरकाल तक जीवित रहता है। बुद्ध को जितना उनके युग ने बनाया उससे कहीं अधिक बुद्ध ने अपने युग को बनाया। यह समानान्तर -समय इतना दृढ़ और विशाल हो सकता है कि उसकी अपेक्षा प्रतिक्षण बीतता भौतिक समय अ-यथार्थ लगे। बुद्ध के 'विचारों का समय' स्थायी है। कुछ इसी तरह संसार के महान साहित्यों, कलाओं और विचारों के समयों को भी सोचा जा सकता है।
एक महा-नदी गंगा की तरह होती है। एक जीवन-धारा, जिसमें कालान्तर में अनेक छोटी-बड़ी नदियाँ मिलती चलती हैं। हर नदी का अपना एक क्षेत्र और उप-क्षेत्र होता है, जो एक महान चरित के प्रति समय से तुलनीय है। कुमारजीव के कामों द्वारा रचित उसका समय उसका अपना भी है और बुद्ध या नागार्जुन के प्रति समय में शामिल समय भी। प्रमुख धारा को पोषित और संवर्धित करती हुई अनेक नदियों में से एक। हम कुछ इस तरह भी इतिहास के महानायकों, कृतिकारों और कृतियों को याद कर सकते हैं। बड़ी-छोटी सहायक नदियों की तरह जो मुख्य धारा को उद्गम से सागर तक समृद्ध करती हैं।
इसके अनेक अकाट्य प्रमाण मिलते हैं कि कश्मीर और गन्धार प्रदेश की पांडित्य-परम्परा की न केवल भारत बल्कि पूरे यूरेशिया में धाक थी। सिकन्दर के आक्रमण से बहुत पहले ही से जैन और बौद्ध विचारकों का एथेन्स और रोम से लेकर चीन तक, तथा उत्तरी एशिया (कूछा) से दक्षिण एशिया (श्रीलंका) तक आना जाना था। इसी यायावरीय परम्परा में अशोक ने बौद्ध विचारों के प्रचारकों को एशिया के उत्तर से दक्षिण तक, तथा पूर्व से पश्चिम तक भेजा था। विचारों के ये सांस्कृतिक अभियान आज भी विश्व इतिहास में बेजोड़ हैं। यह यायावरीय प्रथा कभी रुकी नहीं। और विभिन्न तरीक़ों से उस काम को अंजाम देती रही जिसे वैश्विक कहा जा सकता है। यह अनुभूति रोमांचक है कि कैसे मनुष्य की सूक्ष्मतम कलाएँ और विचार, युद्धों और महायुद्धों के काले बादलों के बीच भी जगह बना कर बिजलियों की तरह चमकते रहे हैं। सधुक्कड़ी श्रमण-परम्परा में वे सही मानों में यायावर और घुमक्कड़ स्वभाव के थे। 'रेशम मार्ग' (सिल्क रोड) पर स्थित अधिकांश शहर जैसे खॉथान, क़ाश्गर, बुखारा, कूछा आदि बौद्ध केन्द्र थे। इसमें सन्देह नहीं कि उनके द्वारा भारतीय चिन्तन पूरे यूरेशिया में पहुँचा होगा, जिसके अनेक तत्त्व प्राचीन यूनानी और बाद के ग्रीको-रोमन दर्शन में आसानी से पहचाने जा सकते हैं [ ख़ासकर - प्लॉटिनस (PLOTINUS, 205-270 ई.) के 'नव-प्लेटोवाद' में]। इसी समय ग्रीक और रोमन दार्शनिकों की अनेक कृतियाँ भी अरबी में अनूदित हुईं। यह सहज सम्भव है कि सूफ़ीवाद में वेदान्त की जो झलकें दिखायी देती हैं वे इन्ही अनुवादों की देन हों। यह तथ्य भी दिलचस्प है कि बहुत समय तक प्लॉटिनस (रोमन विचारक) को नामोच्चारण की समानता के कारण प्लेटो समझा जाता रहा। उसके ENNEUDS को पढ़ते हुए आज भी लगता कि उसके कुछ अंश उपनिषदों के भावानुवाद हों।
इस काव्य-रचना में प्रयुक्त रेखांकन प्रो. निर्मला शर्मा की पुस्तक 'कुमारजीव' से लिए गए हैं, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। जे.एन.यू. के चीनी भाषा के विभागाध्यक्ष प्रो. हेमन्त अधलखा और चीनी अध्येता च्या येन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिन्होंने फिनईन (PINYIN) पद्धति के अनुसार चीनी नामों के उच्चारण का सुझाव दिया। अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी और पंकज बोस ने पांडुलिपि संयोजन में बराबर सहयोग किया है। इन दोनों को मेरा शुभाशीष ।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist