भारतीय संस्कृति में मानव और प्रकृति का घनिष्ठ संबंध निरूपित है। यह संबंध उतना ही प्राचीन है जितनी मानव की सत्ता। वेदों में भी मानव जीवन को प्रकृति का ही एक अंग माना गया है। वैदिक देवता वस्तुतः प्राकृतिक उपादानों के ही रूप हैं। उपनिषदों में मानव तथा प्रकृति को अंग-अंगी के रूप में स्वीकार करते हुए दोनों की तात्त्विक तथा आंतरिक एकता को रूपायित किया गया है। भारतीय आस्तिक दर्शनों के पुनर्जन्म-सिद्धांत से तथा सांख्य दर्शन के पुरुष और प्रकृति के सिद्धांत से मानव और प्रकृति के बीच एकसूत्रता की भावना को विशेष बल मिला है। बौद्ध दर्शन में भी प्रकृति और मानव जीवन को दृष्टि में रखकर ही सिद्धांतों तथा तथ्यों का निरूपण किया गया है। स्पष्ट है कि भारतीय दृष्टि से प्रकृति और मानव जीवन को एक ही सूत्र में आबद्ध करने के कारण दोनों में साहचर्य की प्रगाढ़ भावना का विकास हुआ है। परंतु पाश्चात्त्य दृष्टिकोण कुछ और ही है। यूनानियों ने मनुष्य और प्रकृति दोनों का स्वतंत्र व्यक्तित्व माना है। उन्होंने प्रकृति की अपेक्षा मानव को अधिक महत्व दिया है तथा प्रकृति का वस्तुपरक विश्लेषण किया है। जबकि भारतीय कवियों का प्रकृति के प्रति भावनात्मक दृष्टिकोण रहा है। उन्होंने मानव एवं प्रकृति के अभिन्न संबंध का निरूपण किया है। महाकवि कालिदास ऐसे ही विदग्ध और रसप्रवण कवि हैं।
कालिदास संस्कृत वाङ्मय के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे प्रकृति और मानव के अंतस्तल में प्रविष्ट होकर अति सूक्ष्म दृष्टि से तद्गत सौंदर्य का पर्यवेक्षण करते हैं और तद्नुसार रसानुप्राणित काव्य-साधनों के द्वारा कोमलकांत पदावली में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते हैं। कालिदास प्रकृति और मानव जीवन में अद्भुत सामंजस्य स्थापित करने में सफल हुए हैं। उनकी सौंदर्य परिकल्पनाओं का आलंबन प्रकृति है। मानव और प्रकृति में जिस तादात्म्य और एकसूत्रता का प्रतिपादन उन्होंने किया है, वह अद्भुत है। उनकी कविता नवीन सौंदर्य की सृष्टि करती है। उन्होंने विश्व के कण-कण में बिखरे हुए सौंदर्य को आत्मसात् कर अपनी कृतियों में मूर्त कर दिया है।
काव्य-जगत् में कालिदास ने प्रकृति के विविध रूपों एवं पक्षों को प्रस्तुत करके आगे आने वाले कवियों के लिए प्रकृति-चित्रण का आदर्श स्थापित किया। उनके काव्य में भावात्मक तथा कलात्मक दोनों प्रकार का प्रकृति-चित्रण मिलता है। महाकवि कालिदास विरचित दो महाकाव्य हैं- रघुवंश और कुमारसंभव इनके साथ गीतिकाव्य में मेघदूत को मिलाकर लघुत्रयी की संज्ञा दी जाती है। प्रस्तुत पुस्तक में तीनों काव्यों में प्रकृति के आलंबन, उद्दीपन एवं कलात्मक रूपों में वर्णित प्रकृति-सौंदर्य का अनुसंधान किया गया है।
पुस्तक 7 अध्यायों में निबद्ध है। प्रथम अध्याय में लघुत्रयी के स्वरूप का निरूपण है। इसमें कालिदास के जीवन एवं काल पर प्रकाश डालते हुए लघुत्रयी के तीनों काव्य कृतियों में कथावस्तु, पात्र तथा रसों का सामान्य विवेचन तथा काव्यात्मक विशेषताओं का निरूपण किया गया है। द्वितीय अध्याय में प्रकृति के स्वरूप का वर्णन है। प्रकृति के विविध रूप है। जब प्रकृति अपने जड़ रूप को छोड़कर कवि की व्यंजना के सहारे सचेतन रूप में हमारे मानस प्रत्यक्ष में आती है तो हमारी सौंदर्यानुभूति अधिक उदात्त और आकर्षक हो जाती है। इस संपूर्ण प्रक्रिया को समझने के लिए भारतीय परंपरानुमोदित रसानुभूति की प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। सौंदर्य के धरातल पर पहुँचकर प्रकृति-सौंदर्य भी उसी प्रकार सहानुभूति का विषय बन जाती है जिस प्रकार शब्दार्थ रसत्व को प्राप्त हो जाते हैं। प्रकृति का सौंदर्य ही कवि की कल्पना के माध्यम से रसत्व को प्राप्त हो जाता है। तत्पश्चात् संस्कृत काव्यशास्त्र की व्याख्या में प्रकृति सौंदर्य का स्थान, प्रकृति के आलंबन और उद्दीपन रूप आदि का विवेचन है। तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम अध्यायों में क्रमशः कुमारसंभव, रघुवंश और मेघदूत में प्रकृति-सौंदर्य का निरूपण किया गया है। षष्ठ अध्याय में लघुत्रयी में प्रकृति के विभिन्न रूपों का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। सप्तम अध्याय रस विन्यास की दृष्टि से लघुत्रयी के प्राकृतिक सौंदर्य की व्याख्या करता है। विभिन्न रसों के विन्यास से प्रकृति-चित्रों में अपूर्व रमणीयता का समावेश हो गया है। प्रस्तुत पुस्तक में अनेक विषयों पर मौलिक रूप से विचार किया गया है। तृतीय, चतुर्थ तथा पंचम अध्याय इस पुस्तक के मुख्य भाग हैं जिनमें काव्यशास्त्र के दृष्टिकोण से कुमारसंभव रघुवंश एवं मेघदूत में उपलब्ध प्रकृति के आलंबन, उद्दीपन एवं कलात्मक रूपों का आलोचनात्मक विवेचन किया गया है। लघुत्रयी के प्राकृतिक सौंदर्य का भारतीय तथा पाश्चात्त्य काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से विवेचना करने का मेरा यह प्रथम प्रयास है।
सभी विद्वान् और अनुसन्धित्सु लेखकों की मैं ऋणी हूं जिनकी कृतियां मेरे इस उपक्रम की सहायिका बनी। प्रकृति-सौंदर्य एवं रसानुभूति पर जो भी शोधकार्य हुए हैं उनके निष्कर्षों को भी इस पुस्तक में समाविष्ट किया गया है जिससे आधुनिक प्रवृत्तियों के संबंध में भी जानकारी प्राप्त की जा सके। संप्रति इस पुस्तक को प्रस्तुत करते हुए अपार हर्ष हो रहा है की विविध कठिनाइयों के रहते हुए भी परमपिता परमेश्वर की कृपा और गुरुजनों के आशीर्वाद से यह कार्य संपन्न हो सका।
मैं अभ्युदय प्रकाशन, नई दिल्ली की हृदय से आभारी हूं जिनके प्रयासों से अत्यल्प समय में यह पुस्तक प्रकाशित हो रही है। उन सभी गुरुजनों, विद्वान् साथियों, इष्ट मित्रों और परिवार जनों की भी अत्यन्त कृतज्ञ हूँ जिनकी प्रेरणा, सुझाव और सहयोग ने मुझे इस पुस्तक को आप सबों के समक्ष प्रस्तुत करने का शुभ अवसर प्रदान किया है। आशा है, मेरे इस कार्य से संस्कृत जगत् विशेषकर साहित्य के सहृदय प्रेमी लाभान्वित होंगे। यदि यह प्रस्तुति विश्व-साहित्य और सौंदर्यशास्त्र के आलोचनात्मक परिशीलन में अपना कुछ योगदान कर सकेगी तो मेरा प्रयास सफल होगा। मेरा सहृदय पाठकों एवं विद्वज्जनों से नम्र निवेदन है कि वे अपने रचनात्मक सुझावों के द्वारा अनुगृहीत करें तथा जहाँ कहीं भी त्रुटि या अशुद्धि रह गई हो उसमें संशोधन कर मार्गदर्शन करने का कष्ट करें।
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