कबीर की वाणी लोक की वाणी है, इसलिए वह लोक साहित्य के बहुत नजदीक बैठती है। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनमें एक आंतरिक संज्ञान प्रकृति प्रदत्त था, उन्हें हजारों वर्ष पुरानी भारतीय शब्द ज्ञान परम्परा की गौरवशाली सम्पदा विरासत में मिली थी। सम्पदा तो सबके लिए बिखरी थी, लेकिन कबीर को भारतीय अध्यात्म और नादब्रह्म के संस्कार जैसे पिछले कई जन्मों के पूर्व संचय से मिले थे। तभी तो जिसने पढ़ने के नाम पर एक अक्षर नहीं जाना था, फिर भी वह आत्मा और परमात्मा के रहस्य को अपनी वाणी में ऐसा बोलता था, जैसे उन्होंने सारे शास्त्र पढ़े हों, योग की भाषा और प्रविधियों को गहरे तक जाना हो। निर्गुण भक्ति के सबसे सशक्त संत कवि कबीर की वाणी, रचना और साधना का जितना व्यापक और गहरा प्रभाव लोक परम्परा की सहज धारा में शामिल लगता है, उतना किसी अन्य पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती संत कवि का नहीं दिखाई देता।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन कि 'यह विचित्र बात है कि जिस समय भारतवर्ष में जाति-पांति को तोड़ने वाली संस्कृति ने प्रबल प्रताप के साथ आक्रमण करना शुरू किया और अंत तक इस देश में अपना शासन स्थापित करने में सफलता पाई, उसी समय जाति-पांति का बंधन और कठोर हो गया।' कई बार मुझे यह तार्किक नहीं लगता। दरअसल आक्रामकों की उस संस्कृति में स्वयं विभेदों के प्रति नृशंस असहिष्णुता थी और ऊँच-नीच का भाव बहुत ठसा-ठस भरा हुआ था, अतः उसके समय में ऊँच-नीच वाली कुलगत भावना का विस्तार कोई वैचित्र्य की बात नहीं थी। इसलिये डॉ. धर्मवीर द्वारा यह कहना एक खोखले आशावादी स्वप्न में उलझना है कि उस मध्य युग में तत्कालीन आक्रामकों के धर्म ने 'धर्म के मामले में दलित को आशा और राहत दी है।' यह बात वे कबीर पर अपनी पुस्तक में कहते हैं। बिना यह जाने कि सिकंदर लोदी ने जिस तरह ब्राह्मणों पर अत्याचार किये थे, उसी तरह से 'दलित' कबीर को भी नहीं छोड़ा था और उन्हें कोई 'आशा और राहत' नहीं उपलब्ध हो पाई थी।' भाईचारे और समानता के मूल्य' यदि वास्तव में होते तो वे नृशंसताएँ होतीं ही क्यों? कबीर यदि मुसलमान होते तो वे 'दलित' कैसे हो सकते थे, क्योंकि 'बंधुत्व और समानता' वाली कथित संस्कृति में दलित होना कैसे संभव है? वे अपने साहित्य में खुद को बारम्बार जुलाहा कहते है, लेकिन एक बार भी मुसलमान क्यों नहीं कहते? बल्कि उनके शेख तकी तो बादशाह सिकंदर लोदी को उनके विरूद्ध भड़का देते हैं और फिर शुरू होता है उनकी यंत्रणाओं का क्रम, जिसे 'आशा और राहत' सिर्फ डॉ. धर्मवीर जैसे प्रज्ञाचक्षु ही कह सकते हैं। विल ड्यूरां तो हिन्दुओं के नरसंहार, उनकी स्त्रियों के अपहरण और बलात्कार, जबरिया धर्मान्तरण और स्त्रियों-बच्चों के दास-दुकानों में बेचे जाने का जो विवरण स्वयं मुस्लिम इतिहासकारों के हवाले से देता है, उसमें कहीं भी आक्रान्ताओं द्वारा दलितों को' आशा और राहत' के विशेष व्यवहार का उल्लेख नहीं है। जब गजनी ने 20 लाख लोग मारे या गुलाम बनाए थे (अल उत्बी, नामक सुल्तान-सचिव के दावे अनुसार) तो उसने 'दलितों' को छांटकर अलग कर दिया हो, ऐसा नहीं हुआ। जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने सन् 1195 में राजा भीम के 20,000 लोगों को गुलाम बनाया था या सन् 1202 में कालिंजर में 50,000 लोगों को गुलाम बनाया, तो वे सबके सब ब्राह्मण नहीं थे। सूफी अमीर खुसरो का कहना था तब । The Turks, whenever they please, can seize, buy or sell any Hindu.î तब उसने । any Hindu excepting Dalits । नहीं कहा था। तत्कालीन इतिहासकार शम्स सिराज अली की तो यह शिकायत थी कि गुलाम बहुत ज्यादा हो गए। होते नहीं? अकेले फिरोजशाह तुगलक ने 1,80,000 गुलाम बनाए थे। इन्नबतूता लिखता है कि' गाँव के गाँव वीरान हो गए थे।' तैमूर स्वयं दावा करता है कि एक ही दिन सत्रह तारीख को उसकी 15,000 तुर्कों वाली सेना में से प्रत्येक तुर्क ने 50 से 100 कैदी बनाए थे और औरतें तो इतनी मिर्ली कि गिनती मुश्किल हो गई। करीब दो से ढाई लाख लोग गुलाम बनाकर समरकंद भेज दिए गए। दिल्ली पर 1398-99 में आक्रमण से पहले तैमूर ने एक लाख गुलामों का 'कोल्ड-ब्लडेड मर्डर' किया था। सिर्फ मुस्लिमों वाले दिल्ली के इलाके लूट/हत्या से छोड़ने की बात तैमूर करता है, दलितों वाले नहीं। जिस सिकंदर लोदी की बात कबीर पर अत्याचार और यंत्रणा के सिलसिले में की जाती है, उसने रीवा और ग्वालियर में ऐसा नरसंहार किया था कि वे निर्जन हो गये थे। क्या उसने दलितों को' आशा और राहत' देने की सावधानी रखी थी? उस वक्त क्या दलित डॉ. धर्मवीर की तरह यह कहकर बच पाए थे कि 'ब्राह्मण धर्म को इस्लाम से लड़ना है तो वह लड़ता रहे, यह उसकी जरूरत हो सकती है, लेकिन दलित इस्लाम से लड़ाई नहीं लड़ेगा।' दरअसल डॉ. धर्मवीर यह भूल जाते हैं कि आज का यह वक्त ही लड़ाई का नहीं है। इस्लाम या किसी भी धर्म से। धार्मिक आधार पर लड़ाई का विचार सिर्फ डॉ. धर्मवीर जैसों के मस्तिष्क में शेष रह गया है, वरना साहित्यिक आलोचना इन टर्म्स में होती ही नहीं। लड़ाईयाँ तो मध्यकाल में लड़ ली गई हैं।
मध्यकाल में अजलफ अशरफ का विचार समाज में बहुत प्रभावी था और बहुत पाशविक तरीके से विजितों पर लागू किया गया था। ऊँच-नीच के इस विचार ने पुरुष सूक्त की जैविक अंतर्निर्भरता वाली श्रेणी-व्यवस्था को भी दुष्प्रभावित किया था। मध्यकाल में उसकी विकृतियों को नष्ट करने के लिए ही भक्ति के विचार ने जन्म लिया था। भक्ति ने इस ऊँच-नीच पर ही आपत्ति की थी। उस समय तथाकथित हीन जातियों से ही भारत को आक्रामकों के विरूद्ध एक बौद्धिक नेतृत्व मिला। चोखा मेला, करया मेला, बांका, निर्मला आदि संत मैहर थे।
संत सेन नाई थे। संत साधना (14वीं शती वि.) जाति के कसाई थे। काश्मीर की महिला संत लालदेद या लल्ला ढेढ़वा मेहतर जाति में, नामदेव छीपा जाति में हुए थे। रैदास जूते गांठते थे। इनमें से कोई भी कह सकता था कि 'कहहुँ कवन मैं परम कुलीना।' डॉ. अम्बेडकर ने बुद्ध धर्म और भक्ति को दलितों के सनातन धर्म के रूप में इसलिये स्वीकार भी किया था, लेकिन बाद में एक क्रम यह चला कि दलित संतों के राम और तुलसी के राम भिन्न हैं। पता नहीं, यदि उन्हें भिन्न ही होना था तो 'राम' शब्द की भी क्या आवश्यकता थी? यदि उन्हें भिन्न होने की जिद थी तो उनके स्वर इनसे इतने क्यों मिलते थे।
ऐसे अद्भुत कबीर को निर्गुण सगुण में ही नहीं, बल्कि जातियों के और भी छोटे खेमों में उलझाने में हमारे आधुनिक आलोचकगण लगे हैं। वे कबीर के उस पद के बारे में क्या कहेंगे कि जिसमें वे सरासर एक गैर-प्रगतिशील बात कहते हैं- 'पूरब जनम हम ब्राह्मण होते वोछे करम तब हीना/ रामदेव की सेवा चूका पकरि जुलाहा कीना।' वे वेद-विरोधी भी नहीं थे, उनका कहना यह था कि 'वेद कतेब कहो मति झूठे जौ न विचारै।
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