लोक जीवन और लोक साहित्य का सम्बन्ध ठीक वैसा ही है, जैसा जल और कुंभका। दोनों एक दूसरे के पूरक एवं धारक हैं। दोनों में से एक का भी अस्तित्त्व कमतर नहीं आँका जा सकता। 'लोक' शब्द अंग्रेजी के 'फोक' से बहुत आगे एक सात्विक, समर्थवान और प्राणवान अर्थ सम्पन्न शब्द है। यों कहा जाए कि लोक केवल शब्द होने के बजाए लोक जीवन का प्रतिनिधि भी है। लोक एक आस्तिक परंपरा है। वह स्वाभिमानी, निर्दभी और निर्विकारी भाव मुक्त सारतत्त्व का सजग पहरुआ है। यह लोक साहित्य उसी परम-चरम ऊर्जावान 'लोक' का चित्रगुप्त है। इसीलिए वह जनप्रतिनिधि कहलाने का उत्तरदायित्व पूर्ण निर्वाह भी है। वह लोक भी है, लोक का प्रतिनिधि भी है। वह स्वरूप भी है। छाया भी है। माया भी है। वह लौकिक होकर भी पारलौकिक एवं पारदर्शी है।
लोक साहित्य का सर्जक स्वयं लोक ही होता है। इसीलिए लोक साहित्य को सर्वजनीन सर्वस्वीकृत और सर्वमान्य कहा जाता है। यह लोक मान्य साहित्य पारंपरिक होते हुए भी सदा युगानुकालिक, प्रासंगिक एवं नित नवीन बना रहता है।
पारंपरिक एवं श्रुति आधारित होने के कारण इसमें पाठांतर और भाषांतर होना एक सहज एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह देशकाल से भी परे होकर असीम और अपरिमित होता है। लोक साहित्य की यात्रा पैरों पर नहीं पदों पर होती है। यह सात समंदर पार की यात्रा करता हुआ 'सच्चा सौदा' करके लौटता है। यह कह पाना बहुत कठिन है कि वह कहाँ कितना छोड़ आया और कहाँ से कितना ले आया। यदि कोई लोककथा, लोकगाथा या लोकगीत अथवा लोक साहित्य की कोई विधा पंजाब में कही-सुनी जाती है, तो वही मालवा में भी कही-सुनी जाती है। उदाहरण के लिये गोगा पीर की गाथा राजस्थान, मालवा से लगाकर सुदूर पंजाब में भी सुनी-कही जाती है। यह बात भिन्न है कि इसमें भाषांतर और पाठांतर हुआ है, जो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसी प्रकार भर्तृहरि और गोपीचन्द की लोकगाथा सुदूर सिंघ तक गायी जाती है। भाषा और लोक संगीत में किंचित अन्तर के अतिरिक्त कोई भी परिवर्तन नहीं पाया जाता।
भर्तृहरि जिन्हें विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता कहा गया है। इन्हें इस गाथा के अनुसार तथा उपलब्ध अन्य लोक गाथाओं-कथा गीतों एवं किंवदंतियों के अनुसार परमवीर, परम ज्ञानी एवं परम भोगी कहा गया है। तीनों गुणों के अतिरिक्त वे नीतिशाख के ज्ञाता थे। नीति शतक, श्रृंगार शतक वैराग्य शतक एवं वाक्यपदीय जैसे कालजयी ग्रंथों के सर्जक भर्तृहरि ही थे।
भोग की अतिशयता निश्चित रूप से विरक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। जिस प्रकार धन की तीन स्थितियाँ दान, भोग और नाश बखानी गई है, उसी प्रकार भोग की भी तीन स्थितियाँ हैं। भोग की अतिशयता से एक न एक दिन उचाट की स्थिति और वैराग्य की जागृति होती है।
भर्तृहरि के साथ भी यही हुआ। वे अंततः राजा से योगी बन गए और लोक में 'राज योगी भरथरी' कहलाए। गोरख से उनका सम्पर्क और उनकी उनसे दीक्षा पर यहाँ चर्चा नहीं करना है। इसका तार्किक उत्तर संग्रहीत गाथा में से ही खोजना होगा। लोक उन्हें गोरख का ही शिष्य मानकर उन्हें नाथ सम्प्रदाय का योगी मानता है। यह नाथ सम्प्रदाय की लोक आस्था और स्वीकृति का ही प्रतिफल है। उन्हें कहीं भी 'भरथरी नाथ' नहीं कहा गया है। केवल भरथरी ही कहा गया है। नाथ योगी भरथरी को सारंगी पर पूरे अंचल में खूब गाते आ रहे हैं। भरथरी के चरित्र को लेकर अनेक नाट्य प्रदर्शन भी हुए हैं। लोक में वे बहुत ख्याति सम्पन्न योगी है। लोक गायक अधिकतर पिंगला प्रसंग को गाते हैं। भरथरी की लोक गाथाएँ लगभग उत्तरी भारत के सभी अंचलों में वहाँ की लोक बोली में गायी बजायी जाती हैं। यहाँ संग्रहीत गाथा उनके जीवन के अनेक प्रसंगों पर ही प्रकाश नहीं डालती है, बल्कि उनके जन्म से (पूर्व जन्म से भी) योग सिद्धि होने तक का लोक प्रमाणिक चित्रण भी है। यही इस गाथा की विशेषता भी है। इतना विशद् एवं सम्पूर्ण चित्रण अन्यत्र कहीं भी एक स्थान पर नहीं मिलता ।
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