उपन्यास आधुनिक युग की देन है। काल की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास साहित्य के विकास का इतिहास अत्यल्प है। नब्बे वर्षों की छोटी सी अवधि में हिन्दी उपन्यास ने विकास के उस बिन्दु को छूने का प्रयास किया है, जिसे उपलब्ध करने में अंग्रेजी उपन्यास साहित्य को तीन शताब्दियों से भी अधिक समय लगा है।
हिन्दी उपन्यास जगत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है- प्रेमचन्द का आविर्भाव, जिनकी कृतियों में भारतीय जन-मानस ने अपने हृदय के स्पन्दनों को सुना। उन्होंने आदर्शोन्मुखी यथार्थ की स्थापना द्वारा कथा परम्परा के मार्ग को प्रशस्त किया। प्रेमचंदोत्तर युगीन उपन्यासकारों ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक तथा मनोवैज्ञानिक आदि प्रवृत्तियों के विकास में विशेष योग दिया है।
नैतिक, सामाजिक और आर्थिक मूल्यों के विघटन के कारण कुण्ठाग्रस्त एवं जटिल मनोदशाओं वाले व्यक्तियों को पात्र रूप में ग्रहण कर आज के उपन्यासकारों ने मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की रचना की। मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के द्वारा चरित्र-निर्माण और घटना-विकास किया गया। फ्रॉयड, एडलर, जुंग, बर्गसां तथा अन्य विभूतियों ने मानवात्मा के अन्तः प्रदेश के कई स्तरों का आविष्कार किया। ऐसे मनोविज्ञान की सामग्री लेकर कलात्मक रूप देने की नवीन परम्परा का सूत्रपात उपन्यास में हुआ। अभिव्यक्ति के लिए आकुल आज के उपन्यासकार ने मनोविज्ञान की तकनीकों द्वारा मानस जीवन की समीपतम रेखा को पकड़ने का प्रयास किया है।
मनोवैज्ञानिक उपन्यास पात्रों और परिस्थितियों की स्थूल कथा न होकर परिस्थितियों और मानसिक घात-प्रतिघात में फँसे पात्रों का मनोविश्लेषण है, जिसमें पात्रों के मानसिक जगत की कथा है। ऐसे उपन्यासों के स्वगत कथन पात्रों के अन्तर्मन का परिचय करवाते हैं, जिनमें असंबद्ध क्षणों की अनुभूतियाँ हैं और मानसिक स्थितियों की अभिव्यक्ति मात्र शब्दों में नहीं, वरन् बिम्ब और प्रतीकों में होती है। इनके विश्लेषण हेतु रूढ़िगत परम्पराओं और शिल्प की जगह विशिष्ट प्रणालियों का प्रयोग होता है। ये मनोवैज्ञानिक उपन्यास हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं।
अतः मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के पठन पठन के लिए पाठकों में एक विशेष रुचि परिष्कार की आवश्यकता है ताकि वह उपन्यासकारों की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में उनकी कृति का रसास्वादन कर पात्रों के प्रति संवेदना प्रकट कर सके।
एम०ए० अंग्रेजी करते वक्त पाठ्यक्रम में लगे दोस्तोवस्की के उपन्यास 'क्राइम एण्ड पनिशमेन्ट' से मैं काफी प्रभावित हुआ। उसके नायक रास्कोलनिकोव की सोच प्रक्रिया ने मुझे आतंकित कर दिया और ऐसी जटिल मानवीय हरकतों के प्रति सोचने पर मजबूर किया। उसी दौरान रोमाँ रोला का 'ज्यों क्रिस्टॉफ', जेम्स जॉईस का 'पोर्ट्रेट ऑफ दि आर्टिस्ट एस ए यंग मैन' और डी.एच. लॉरेन्स का 'लेडी चेटरलीस लवर' पढ़ने का मौका मिला। उन उपन्यासों ने मुझे बहुत विचलित किया। एम०ए० हिन्दी करते वक्त हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों से भी मैं परिचित एवं अवगत हुआ। जैनेन्द्र के 'सुनीता', 'मुक्तिबोध' और अज्ञेय के 'नदी के द्वीप' ने मेरी श्रद्धा बढ़ा दी।
लेकिन मन की बैचेनी और अकुलाहट शान्त न हुई और अधूरेपन के बोध ने मुझे इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए अनुप्रेरित किया।
जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है कि मेरे इस अनुसन्धान का प्रथम लक्ष्य हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। यों तो मनोवैज्ञानिक उपन्यास के क्षेत्र में अनेक उपन्यास उपलब्ध हैं लेकिन मैंने उन्हीं उपन्यासों को अनुसंधान के लिए चुना जो किसी विशिष्ट मनोवैज्ञानिक सिद्धांत एवं विचार का अनुपालन करते हुए व्यक्ति चेतना को उजागर करते हैं।
विशेषतः मैं 'अन्तर्जगत' शब्द पर बल देना चाहता हूँ जो हमारी आत्म-चेतना की अभिव्यक्ति करता है। ऐसा जगत जिसे प्रत्येक व्यक्ति ज्ञातावस्था में अपनी विविध चेतनाओं की पर्तों तले दबा देता है। जिससे मानव मनुष्य तो बन सकता है लेकिन व्यक्ति नहीं बन सकता। वह आजीवन अपनी उन एषणाओं की परितृप्ति के लिए तड़पता रहता हैं
इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय ने अपने काल में परम्परागत मूल्यों से हटकर एक ऐसी पगडंडी अपनाई जो हमारे अन्धकारमय जटिल मनोभावों के बीच से होकर गुजरती है और मानवीय अन्तः चेतना एवं उसकी पशुवृत्ति को प्रकाशित करती है। उन्होंने अपने ढंग से मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का कलात्मक वहन किया है।
वैसे मेरा अनुसंधानकार्य इस क्षेत्र में प्रथम नहीं है। सर्वप्रथम डॉ० देवराज उपाध्याय ने आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य और मनोविज्ञान शोध-ग्रंथ प्रस्तुत किया, परंतु विषय की विशदता एवं विदेशी साहित्य के विस्तृत संदर्भों एवं विवेचन बाहुल्य के कारण केवल छुट-पुट विश्लेषण एवं व्याख्याएँ संभव हो सकी हैं, उसमें क्रमिक आकलन का अभाव खटकता है। इसी क्रम में डॉ० धनराज मानधाने का 'हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यास' महत्वपूर्ण है, लेकिन उसमें विचार एवं दर्शन अछूते रह गये हैं।
इनके अलावा कुछ अन्य आलोचनात्मक ग्रंथों में भी मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की प्रवृत्तियों का मात्र सामान्य विश्लेषण प्राप्य है, जैसे डॉ० रणवीर रांग्रा का 'हिन्दी उपन्यास में चरित्र का विकास', डॉ० एस०एन० गणेशन का 'हिन्दी उपन्यास साहित्य का अध्ययन', डॉ० रामदरश मिश्र का 'हिन्दी उपन्यासः एक अन्तर्यात्रा'। कुछ विद्वानों ने उपन्यासकार विशेष को लेकर आलोचनात्मक ग्रंथ प्रस्तुत किया है, जैसे- डॉ० देवराज का 'जैनेन्द्र के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', डॉ० ज्वालाप्रसाद खेतान का' अज्ञेय एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन', डॉ० कृष्णदेव झारी का 'उपन्यासकार इलाचन्द्र जोशी' आदि। परंतु इनमें संक्षिप्त विश्लेषण ही प्रस्तुत हो पाया है और कई पहलू अछूते रह गए हैं।
1. अनुसन्धानार्थ उपलब्ध आलोचनात्मक ग्रंथों की त्रुटियों एवं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए मैंने यथासंभव उनकी आपूर्ति करने की कोशिश की है।
2. गेस्टाल्ट के संपूर्णतावाद से प्रभावित हो मैंने उपन्यासकारों के उपन्यासों के सभी पहलुओं, जैसे कथा, उद्देश्य, पात्रों का विश्लेषण, विचारतत्त्व, शिल्प सीमाएँ आदि को समाविष्ट करते हुए उनका सर्वांगीण निरूपण करने का प्रयास किया है।
3. बदले औपन्यासिक परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान के स्वरूपों का उपन्यास विधा के साथ संयोजन एवं उत्पन्न प्रतिक्रियाओं का चित्रण।
4. मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की उपलब्धियों एवं न्यूनताओं का आकलन तथा सामाजिक संतुलन की स्थिति के निर्माण में उनके योगदान को स्पष्ट किया गया है।
प्रस्तुत कार्य हेतु मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में अन्तर्जगत का चित्रण करना है उसका सीधा संबंध मनोविज्ञान के संप्रदायों एवं सिद्धांतों से है, अतएव यह अंतर विधायी (इन्टर डिसिप्लिनरी) शोध कार्य बन जाता है। मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों की हिन्दी उपन्यासों में प्रतिस्थापना को दर्शाने के लिए मैंने 'विश्लेषणात्मक पद्धति' (एनालिटिकल एप्रोच) प्रयुक्त की है। हिन्दी उपन्यास का काल क्रमानुसार विकास दर्शाने के लिए 'ऐतिहासिक प्रविधि' (हिस्टोरिकल मैथड) और परिभाषाओं, विचारों के स्पष्टता हेतु 'व्याख्यात्मक' तथा 'सैद्धांतिक आलोचना प्रविधि' अपनाई है।
अस्तु मैं इस पुस्तक को विद्वानों के शुभाशीर्वाद हेतु प्रस्तुत करता हूँ।
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