1996 के ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के साथ श्री दिनेश मिश्र ने मुझसे एक पांडुलिपि भेज देने का अनुरोध किया था ताकि वे इसका हिंदी अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित कर सकें। 1979 में शारदीया 'प्रमा' में मेरा एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था-'मास्टर साब' । मैं इस कृति को विस्तार से लिखना चाहती थी लेकिन मुझे दोबारा समय नहीं मिल पाया। श्री दिनेश मिश्र ने जब कृति भेजने का अनुरोध किया था तब 'मास्टर साब' उपन्यास भेजते हुए मुझे जो थोड़ा-बहुत संकोच हो रहा था, उसे अख़्तर-उज-जमान के टेलिग्राम ने दूर कर दिया। उनका निधन अभी-अभी 4 जनवरी 1997 को 53 वर्ष की आयु में हो गया। इस कृति को लेकर अक्सर मेरी उनसे बातें होती रही हैं। उनसे होने वाली बातों से मुझे जान पड़ा कि हम दोनों के विश्वास का एक ही आधार रहा है। हालाँकि मैं जिन्हें जानती-पहचानती हूँ वे लेखक के तौर पर प्रतिष्ठित अख़्तर-उज-जमान हैं और मुझे विश्वास है कि पश्चिम बंगाल हो या कि बांग्ला देश, वे इस क्षेत्र के श्रेष्ठ उपन्यास लेखक हैं। मुझसे कई गुना बड़े लेखक और यह बात मैं कई बार 'बांग्ला देश' विषयक अपने उन चार आलेखों में भी दोहरा चुकी हूँ-जो कभी 'आजकल' पत्र में प्रकाशित हुए थे।
'मास्टर साब', जैसा कि स्पष्ट ही है, एक जीवनीपरक उपन्यास है। मैंने इस बात से कभी इनकार नहीं किया कि '70 के दशक से जुड़े आंदोलन को मैंने अपना भरपूर समर्थन दिया था। बिहार का आरा जिला वर्ष 1857-58 के दौरान वीर कुँअर सिंह का जिला रहा है। 70 के दशक में जगदीश मास्टर ने धनी जोतदारों द्वारा हरिजन लड़कियों के ऊपर किए जा रहे शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध अपना प्रतिवाद जताया था। उन्होंने 'हरिजनिस्तान' नामक एक गीत-संकलन प्रकाशित किया था और उनके सहयोगियों ने शहर में एक मशाल जुलूस भी निकाला था। उनका नारा था-'हरिजनिस्तान लेकर रहेंगे'। यह और कुछ नहीं, रूढ़िवादी अंध-व्यवस्था के विरुद्ध संगठित विद्रोह था और मास्टर साब इस '70 के दशक तक ही थम जाने वाले नहीं थे। उनकी विद्रोही चेतना उन्हें कृषि प्रधान बिहार के नक्सल आंदोलन की ओर ले गई। मास्टर साब और रामेश्वर अहीर जैसे नाम अब इतिहास हो गए हैं।
इस इतिहास को मैं जनवृत्त के साथ खड़ी होकर ही देखती रही हूँ; राजवृत्त के इतिहास के लेखक ऐतिहासिक होते हैं। मैं उन लोगों को ढूँढ़ती रहती हूँ-जिनका कोई नाम नहीं है, कोई मुकाम नहीं है, जो शोषण के चक्के में पिसते-पिसते एक दिन विद्रोह का शंख फेंक देते हैं। कभी-कभी वे अपनी लड़ाई जीत नहीं पाते और मर भी जाते हैं। उनकी समाधि पर या श्मशान में कोई स्मृति स्तंभ या फलक नहीं लगा होता । लेकिन भारत के इतिहास में मैंने बार-बार होने वाली इस पराजय को कई-कई बार विजय से कहीं अधिक महान् पाया है।
ग्यारहवीं सदी में बंगाल का कैवर्त-विद्रोह हो या 1857-58 का महाविद्रोह, अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी का संथाल मुंडा-किसान-विद्रोह हो या इस शताब्दी का भारतीय नौ-विद्रोह।
मास्टर साब की कहानी में मैंने उसी लोकवृत्त की भूमिका को लाना चाहा है-जात-पाँत का विष और विद्वेष आज भी सक्रिय है और इसीलिए मैंने ऐसी गाथाएँ लिखी हैं।
मैं ऐसे आदमी की कहानी को, अख़्तर-उज-जमान की स्मृति को समर्पित करना चाहती थी। बांग्ला देश में जो महान् मुक्ति युद्ध लड़ा गया, उसके पीछे ढाका शहर और सुदूर गाँव के गरीबों ने क्या भूमिका निभाई थी, उसका ही चित्रण उन्होंने अपनी कृति 'चिलेकोठार सेपाई' में किया था। इसमें एक नई बांग्ला भाषा थी-शहर और कस्बे की धूल, काँदो-कीचड़ कूड़े और गंदे गटर से लथपथ, तो कहीं धनिक वर्ग की अमानवीय असभ्यता से मुखर और झुग्गी-झोंपड़ियों में बंद और कुंद लोगों के एकाएक बारूद बनकर फटने की भाषा। शहर के निचले और पिछड़े तबके के लोगों की बांग्ला भाषा को साहित्य में इतना सम्मान कभी नहीं मिला। जितनी पैनी नजर उतनी ही साफ और सुदृढ़ राजनीतिक आस्था, लोक प्रतिश्रुति से समृद्ध तीखा और चुटीला व्यंग्य।
उनके दो उपन्यास हैं-'चिलेकोठार सेपाई' और 'ख्वाबनामा'। कलम ही जिनका हथियार रहा-ये उस योद्धा लेखक की कृतियाँ हैं। मेरी तरह वे भी इस बात से वाकिफ ये कि लड़ाई कभी खत्म नहीं होती। देश और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ लेखक को लड़ना ही पड़ता है। उसे उठ खड़ा होना होता है कट्टरपंथियों के विरुद्ध तथा अपनी अस्मिता और मनीषा को बेच देने के विरुद्ध । लेखकों को वहाँ और अधिक चौकस रहना पड़ता है-जहाँ अँधेरा कुंडली मारे बैठा है। उसे वहाँ प्रकाश फैलाना होता है, अविवेक पर प्रहार और कशाघात करना होता है।
अख़्तर स्वयं एक दुर्दम्य योद्धा थे। 20 जनवरी 1996 को ढाका में मैं उनसे पहली बार मिली थी। कैंसरग्रस्त उनका दाहिना पैर जाँघ से कटा हुआ। मौत सामने खड़ी है और अख़्तर हो हो हँस रहे है। इसके बाद वे भारत के अन्यान्य भाषाभाषी लेखकों के साथ बड़े आनंद से मिलते रहे, बातें होती रहीं और वे गान सुनते रहे। मैंने वैसा समग्र और जीवंत व्यक्ति नहीं देखा। ऐसा लगता था कि कैंसर रोग भी जैसे उनकी सेवा में खड़ा हो। 4 जनवरी 1997 ने इस युद्धरत सैनिक को हमसे छीन लिया, जिसका हथियार रही उसकी अजेय कलम।
मुझे जो लोग चाहते हैं वे मेरी कृतियों के लिए ही चाहते हैं और उन्हें पता है कि मैं यथासाध्य मनुष्य के लिए ही लड़ाई लड़ रही हूँ। अब आप अवश्य ही समझ जाएँगे कि मैंने यह किताब अख्तर-उज़-जमान इलियास को क्यों समर्पित की है ? आखिर उनके सिवा यह कृति किसी और को कैसे समर्पित की जा सकती थी ? एक योद्धा किसी दूसरे योद्धा के प्रति ही श्रद्धावनत होता है। दूसरे, साहित्य, संस्कृति और ज्ञान के मामले में कहीं कोई सीमारेखा नहीं होती। ये सर्वथा उन्मुक्त क्षेत्र हैं। आकाश का कोई ओर-छोर है ? वह भी तो उन्मुक्त है। अख़्तर ने मुझे बताया कि शोषित लोगों के साथ खड़े होकर उनके लिए काम करते रहना होगा। कलम को विराम देने से काम नहीं चलेगा। मैं इस दायित्व का आजीवन निर्वाह करना चाहती हूँ अगर जीवन और महाकाल मुझे समय दें।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist