हिंदी भाषा में ऐसी पुस्तकों का अपार भंडार है, जो आपको ज्ञान के अथाह सागर में पहुंचा देती हैं, जहां अनमोल मोती प्राप्त होते हैं। परन्तु सामान्य जनों के लिए यहां तक पहुंचना सम्भव नहीं। डूब जाने के डर से वे किनारे ही बैठे रहते हैं। गुरु कृपा, ईश्वर कृपा पर पूर्ण आश्रित होकर, स्वयं कोई भी पुरुषार्थ करने से घबराते हैं।
मैं भी कुछ ऐसी ही सामान्य बुद्धि लेकर जन्मी, पली और बड़ी हुई। परिस्थितियों ने अध्यात्म की गहराइयों तक पहुंचा दिया। वहां तक पहुंचने में जो अनुभव हुए वो मैं आप सबके साथ बांटना चाहती हूं। इस पुस्तक से यदि किसी को इस अध्यात्म मार्ग पर चलने में जरा भी मार्ग दर्शन मिलता है, तो मैं अपने इस प्रयास को सफल समझेंगी। यह प्रयास भी मैं तभी कर पाई हूं जब ईश्वरीय कृपा और गुरुओं की शिक्षा रूपी कृपा से मेरे अहम् का विसर्जन हुआ। अतः यह पुस्तक मेरे उन सभी गुरुओं को समर्पित है, वे चाहे ग्रंथ के रूप में हों, चाहे व्यक्ति के रूप में जिन्होंने पग पग मेरे मार्ग की बाधाओं को दूर करने में मेरी सहायता की।
मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोर ।।
इस पुस्तक में मेरे पिछले तीस वर्ष के अनुभव हैं। अतः जैसे जैसे अनुभव होते गए, विचारों में परिवर्तन और परिपक्वता आती गई और साथ ही यह भी समझ आ गया कि अभी तो आत्म ज्ञान की यात्रा आरम्भ हुई है, केवल उसकी झलक मात्र मिली है। यह यात्रा जन्म जन्मांतर की है, इस जन्म में जहां तक की यात्रा होगी, अगले जन्म में उससे आगे की प्रारम्भ होगी। अतः रुकना भी नहीं है, यही अनुभव हमारे साथ जाएंगे।
इस यात्रा में कई पड़ाव आते हैं, हर बार मन की कोई ग्रंथि खुलती है। मन में चिंतन मनन करने से मन में विष और अमृत दोनों निकलते हैं, जिन्हें उगलने के लिए अपने अनुभव लिख कर, विष और अमृत निकलना ही अच्छा है। इससे मन शान्त और हल्का हो जाता है और आत्म-बल बढ़ता जाता है।
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