प्राक्कथन
(मूल कन्नड़ उपन्यास 'मूकज्जिय कनसुगल' से) उपन्यास की है जिसमें भन-ही-मन कि उसने के विकास यास का अंग है। मानव अनेक बड़ा कि बुद्धिजीवी मानव धरती पर निवास की अपनी इस अल्प अवधि में अनन्त विश्वों से युक्त एवं करोड़ों-करोड़ वर्षों से चली आ रही इस विशाल सृष्टि के किसी एक भाग के एक सूक्ष्म अंज्ञ को भी ठीक-ठीक से नहीं देख पाया। किन्तु अपनी अल्प दृष्टि में इस बीच उसे जो कुछ भी अद्भुत, अलौकिक और चमत्कारपूर्ण लगा उससे वह विस्मित हुए बिना भी नहीं रहा और जिज्ञासु बन प्रश्न करने लगा आखिर, यह जगत क्या है? इसकी रचना किसने की? किस प्रयोजन से की? और, में कौन हूँ और क्यों हूँ? आदि। मात्र प्रश्नों से वह तृप्त होकर नहीं रह गया। उसने अपनी पहुँच के बाहर के उन विषयों को अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप जानने-समझने के लिए अपनी बुद्धि को अनुमान और कल्पना के लोक में प्रवाहित किया। फलतः उसे जैसा, जो कुछ भी आभास हुआ उस कल्पित को ही वह सत्य बताने लगा। जिनकी कल्पना जितनी भव्य और चतुराई-भरी रही उनका चिन्तन, कथन उत्तना ही अधिक सत्य माना गया। जिनकी कल्पना को अवकाश नहीं मिला या जिनका चिन्तन-पक्ष दुर्बल रहा, वे आँख मूँदकर अपने बुजुर्गों की प्रत्येक बात अक्षरशः सत्य मानकर उसी लीक पर चलते-चले आये। हजार लोगों द्वारा हजार-हजार ढंग से समय-समय पर प्रकल्पित ये मनोविलास परस्पर संघर्ष के कारण भी बने। भारत, अर्थात् यहाँ के मूलवासी और बाहर से आयी अन्यान्य जातियों, भी इसका अपवाद नहीं हैं। इस देश के लोगों के इस परम्परागत मनोविश्लेषण को इस उपन्यास की 'मूकज्जी' अपने अनुभव व चिन्तन के माध्यम से कुरेदती है। प्रस्तुत उपन्यास का न तो कोई कथा-नायक है और न ही कथा-नायिका सृष्टि-समस्या के मंथन का प्रयास करते हैं। अवास्तविक लगने वाधी 'अज्जी' कितने ही वास्तविक ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी अन्तर्दृष्टि से उजागर करती है। उपन्यास के अन्य पात्र नागी, रामण्णा, जन्ना आदि या तो सृष्टि-शक्ति की अबहेलना करनेवाली जो मनोवृत्ति है उसके समर्थक या विरोधी हैं, या फिर मात्र साक्षी हैं। अपनी अपरिपक्व मान्यताओं को बलात् दूसरों पर लादनेवाले लोगों की कहानी भी इसमें समाविष्ट है। इसीलिए यातना की जो ध्वनियाँ आज के हम लोगों को सुनाई नहीं पड़ती थीं, वे यहाँ सुनाई पड़ रही हैं। इति. |
लेखक परिचय
के. शिवराम कारन्त जन्म : 10 अक्टूबर, 1902, कर्नाटक । कॉलेज की शिक्षा आधी-अधूरी। 1921 में गाँधी जी के आन्दोलन से प्रेरित हो देशव्यापी रचनात्मक कार्य के लिए समर्पित । आजीवन कन्नड़ साहित्य और संस्कृति के नवोन्मेष में संलग्न रहे। कन्नड़ में लगभग दो सौ कृतियाँ प्रकाशित। सर्वाधिक ख्याति उपन्यासकार के रूप में। कर्नाटक के अनूठे लोकनृत्य-नाट्य यक्षगान के संजीवन में विशिष्ट योगदान। साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1958), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1977) आदि से सम्मानित। सन् 1997 में निधन।
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