रत्नत्रय-सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की शिक्षा के सूत्रधार उपाध्याय परमेष्ठी
सामान्य तौर पर शिक्षक, अध्यापक, वाचक, उपाध्याय, आचार्य, महोपाध्याय, स्वाध्यायी, पाठक, साधक, सिद्ध आदि पर्यायवाची शब्द प्रायोगिक दृष्टि से समानार्थी हैं। इन शब्दों का प्रयोग मूलतः शिक्षा प्रदान करने वाले व्यक्तियों के लिए किया जाता है। समस्त आगमों का सार महामंत्र नवकार में वंदनीय पंच परमेष्ठी पदों में उपाध्याय परमेष्ठी चर्तुथ पद है, और श्रमण संघ-संगठन में आचार्य के बाद दूसरा पद उपाध्याय जी का है। इस पद का सम्बन्ध अध्ययन-अध्यापन से रहा है। यह पद श्रुतप्रधान-सूत्रप्रधान है। उपाध्याय परमेष्ठी मूलतः साधुजी महाराज होकर 27 गुणों के धारक होते हैं तथा 84 लाख उत्तरगुणों का पालन करते हैं और 18 हजार शील के भेदों को धारण करते हैं। इसके अतिरिक्त उस श्रमण-साधु में 25 गुणों का होना अनिवार्य है। इन गुणों की गणना श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार वह श्रमण-साधु 11 अंग, 12 उपांग का स्वाध्यायी हो, करणसत्तरी, चरणसत्तरी के गुणों से युक्त हो (11+12+1+1=25) या वर्तमान समय के उपलब्ध शास्त्रों का ज्ञाता हो। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार वह श्रमण-साधु 11 अंग 14 पूर्व के पाठी होते हैं। (11+14=25) उपाध्याय परमेष्ठी का प्रमुख कार्य सूत्र-वाचना देना है। (भगवती सूत्र 1.1.1) ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना में स्वयं निपूर्ण होकर श्रमण-श्रमणियों तथा मुमुक्षुओं, श्रावक, श्राविकाओं और अन्य व्यक्तियों को पात्र-अपात्र का परीक्षण कर जिनागमों का अध्ययन कराने वाले उपाध्यायजी होते हैं। (रत्नत्रयेषूद्यता जिनागमार्थ सम्यगुपदिशंति येते उपाध्यायाः- भगवती आराधना विजयोदया टीका-46)। इस प्रकार यह सुस्पष्ट हो जाता है कि उपाध्याय परमेष्ठी का सीधा सम्बन्ध पठन-पाठन से है। इसीलिए आचार्य श्री शीलांक ने उपाध्याय परमेष्ठी को अध्यापक कहा है। (उपाध्याय अध्यापकः आचारांग शीलांकवृत्ति, सूत्र 279) यही कारण है कि जैन धर्म में उपाध्याय परमेष्ठी को रत्नत्रय शिक्षा का सूत्रधार कहा गया है। वस्तुतः उपाध्याय परमेष्ठी पद पर प्रतिष्ठित साधुजी महाराज आध्यात्मिक गंतव्य (मोक्ष) की दिशा में साधनारत विकासमान आत्माएँ हैं।
श्रमण-संघ-संगठन में उपाध्याय परमेष्ठी पद का महत्वपूर्ण स्थान संघ में आचार्य की तरह उपाध्याय पद का भी महत्वपूर्ण स्थान होता है। एक अपेक्षा से यह भी कहा जा सकता है कि उपाध्याय का पद आचार्य पद से भी महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि आचार्य का काम श्रमण, श्रमणी के आचार को पवित्र बनाए रखना है। परन्तु एक बात हमें स्पष्ट समझ लेनी चाहिए की ज्ञान के बिना क्रिया-आचार विशुद्ध हो ही नहीं सकता। वस्तुतः सम्यक् ज्ञान ही सम्यक् चारित्र का आधार है। दशवैकालिक सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है-
'पढमं नाणं तओ दया'
अर्थात् पहले ज्ञान और उसके बाद दया-क्रिया होती है। क्योंकि सम्यक् ज्ञान के अभाव में क्रिया, आचरण या चारित्र्य सम्यक् रह ही नहीं सकता। और ज्ञान देने का काम उपाध्याय का होता है। इसलिए श्रमण संघ के प्रथम शिक्षक उपाध्याय परमेष्ठी है।
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