पुस्तक के विषय में
डॉ. रामविलास शर्मा ने इस महत्त्वपूर्ण कृति में यह स्पष्ट किया है कि नयी कविता के विकास की क्या प्रक्रिया रही तथा अस्तित्ववादी भावबोध ने इसे किस प्रकार और किस हद तक प्रभावित किया है । 'तार सप्तक' के पहले और बाद की नयी कविता की विषयवस्तु और इसके स्वरूप का विवेचन करते हुए इसमें इसकी अन्तर्वर्ती धाराओं का भी परिचय दिया गया है, साथ ही तत्त्ववाद की मूल दार्शनिक मान्यताओं की रोशनी में लेखक ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि 'हिन्दी में अस्तित्ववाद एक अराजकतावादी धारा है', तथा अस्तित्ववादी कवियों ने प्राय: 'समस्त इतिहास की व्यर्थता' सिद्ध करते हुए 'पूँजीवादी दृष्टिकोण से यथार्थ को देखा और परखा' है। इसी कम में उनका यह संतोष जाहिर करना भी महत्व रखता है कि 'हिन्दी में पिछले बीस साल में बहुत-सी कविता अस्तित्ववाद से अलग हटकर हुई है।'
नयी कविता के मुख्य स्वरों को प्रस्तुत ग्रन्थ में बड़ी प्रामाणिकता और ईमानदारी के साथ रेखांकित किया गया है तथा अजेय, शमशेर, मुक्तिबोध और नागार्जुन जैसे प्रमुख कवियों के लिए अलग-अलग अध्याय देकर उनके कृतित्व का पैना विश्लेषण किया है। 'मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन' शीर्षक विस्तृत लेख मुक्तिबोध को ज्यादा तर्कसंगत दृष्टि से प्रस्तुत करता है। साथ ही इस नये संस्करण में पहली बार शामिल एक और महत्त्वपूर्ण लेख 'कविता में यथार्थवाद और नयी कविता' हिन्दी कविता की यथार्थवादी धारा को फिर से पहचानने का आग्रह करता है, जिसमें नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की कविता पर विस्तार से विचार किया गया है।
लेखक के विषय में
डॉ. रामविलास शर्मा
जन्म: 10 अक्तूबर, 1912
जन्म स्थान: ग्राम ऊँचगाँव सानी, जिला उन्नाव (उत्तर प्रदेश)।
शिक्षा: 1932 में बी.ए.,1934 में एम.ए. (अंग्रेजी),1938 में पी-एच.डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय)।
लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पाँच वर्ष तक अध्यापन-कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक आगरा के बलवन्त राजपूत कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे। बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर के.एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक का कार्यभार स्वीकार किया और 1974 में अवकाश लिया। सन् 1949 से 1953 तक रामविलासजी अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामन्त्री रहे।
देशभक्ति तथा मार्क्सवादी चेतना रामविलासजी की आलोचना की केन्द्र-बिन्दु हैं। उनकी लेखनी से वाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी-आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।
सम्मान: केन्द्रीय साहित्य अकादेमी का पुरस्कार तथा हिन्दी अकादेमी, दिल्ली का शताब्दी सम्मान।
देहावसान: 30 मई, 2000
दूसरे संस्सकरण की भूमिका
नयी कविता का इतिहास प्रगतिशील कविता के इतिहास से जडड़ हुआ है, इस तपह जुड़ा हुआ है कि कभी-कभी विद्वानों को दोनों मे कोई फर्क नहीं दिखाई देता । इसलिए मैंने सोचा कि प्रगतिशील कविता के इतिहास के बारे में कुछ बातें स्पष्ट करने से नयी कविता के इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में देखना आसान हो जायगा । इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए पुस्तक में एक नया निबन्ध जोड़ दिया है-'कविता में यथार्थवाद और नयी कविता' ।
छायावाद से पहले और उसके समानान्तर, स्वाधीनता आन्दोलन से संबद्ध, जो 'इतिवृत्तारमक' कविता लिखी जा रही थी, उसके नरम और गरम दो राजनीतिक पक्ष थे।नरम पक्ष के प्रतिनिधि थे मैथिलीशरण गुप्त और गरम पक्ष के प्रतिनिधि थे गया प्रसाद शुक्ल सनेही/त्रिशूल। छायावाद ने गरम पक्ष से अपना नाता जोड़ा, विशेषकर निराला ने । छायावादी कविता में आरंभ से ही भाषा, भाव, शिल्प, इन सबके सम्मिलित स्तर पर एक अन्य धारा विकसित हो रही थी । यह धारा यर्थावाद की थी । इसके विकास की एक मंजिल सन् 20-30 के दशक में है, दूसरी सन् 30-40 के दशक में । दूसरे महायुद्ध के दौरान और उसके बाद, स्वाधीनता आन्दोलन के नये उत्थान के समय, यर्थावाद की धारा विशेष रूप से पुष्ट हुई । यह धारा मोटे तौर से कम्यूनिस्ट पार्टी की रणनीति के अनुरूप थी।
दूसरा महायुद्ध समाप्त होते ही अमरीका और ब्रिटेन ने विश्व पैमाने पर एक विराट कम्युनिस्ट विरोधी अभियान छेड़ दिया था । इसमें भारत के अनेक कांग्रेसी और सोशलिस्ट नेता भी शामिल हुए । इस परिस्थिति में व्यक्ति की कुंठा और घुटन को मुख्य विषय मानकर, यथार्थवाद के निरोध मे, प्रयोगवादी कविता का प्रसार हुआ। छायावाद में, विशेष रूप से उसके ह्रासकाल में, जो अस्वस्थ रुझान थे, उन्हें प्रयोगवादी कविता ने अपनाया; उसमें जो स्वस्थ रुझान थे, उनका विकास प्रगतिशील कविता ने किया ।
प्रयोगवाद का सहारा लेकर, फिर पद को उससे अलगाते हुए, सन् 53 के याद विस नयी कविता का प्रसार हुआ, उसके संगठनकर्ता लेखक कुछ सोसलिस्ट नेताओं से संबद्ध थे। साहित्य में ये कम्युनिस्ट विरोधी विचारधारा का प्रसार कर रहे थे; इस तरह की विचारधारा के प्रसार के मुख्य केन्द्र अमरीका में थे । इनके प्रभाव से नयी कविता की धारा स्वाधीनता आन्दोलन की विरासत को, और छायावाद के साथ प्रगतिशील कविता की उपलब्धियों को, नकारते हुए आगे बड़ी । कम्युनिस्ट पार्टी मे इस समय जो विसर्जनवादी प्रवृत्तियां उभरीं, उनसे इस प्रक्रियां में सहायता मिली।
युद्धकाल में, उसके बाद क्रान्तिकारी जन-उभार के दौरान, यथार्थवादी धारा के विकास में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निराला की, और उनके साथ केदारनाथ अग्रवाल की थी। सन् 48 से 53 तक का कालखंड विशेष रूप सै महत्वपूर्ण इसलिए है कि एक सशक्त राजनीतिक कवि के रूप में नागार्जुन इसी कालखंड की देन हैं । इस समय नागार्जुन और केदार कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़ते हैं, उनके राजनीतिक दृष्टिकोण में, एक हद तक शिल्प में भी, समानता है। उनेका यथार्थ- याद स्वाधीनता प्राप्ति से पहले के जन आन्दोलनों वाले यथार्थवाद से संबद्ध है। सन् 56 तक वे इस यथार्थवादी धारा का विकास करते जाते हैं; प्रगतिशील कविता के उतार-चढ़ाव इसके बाद के हैं।
सन् 47 के उत्तरार्ध के कुछ महीने छोड्कर सन् 45 से 56 तक कम्युनिस्ट पार्टी की रणनीति एक-सी रहती है, परिवर्तन उसकी कार्यनीति मैं होते हैं । इस समूचे कालखंड की प्रगतिशील कविताओं का संकलन प्रकाशित करना जरूरी है; उनका अध्ययन एक साथ करना चाहिए। हिंदी के साथ उर्दू कविताएं भी लेनी चाहिए, इससे पता चलेगा कि उस समय हिन्दी-उर्दू के बीच का फासला कितना कम हो गया था; हिन्दी-उर्दू के साथ जनपदीय उपभाषाओं में रची हुई कविताएं भी लेनी चाहिए, इससे मालूम होगा कि वामपंथी विचारधारा, पूंजीवादी विचार- धारा के विकल्प के रूप मे, कैसे दूर-दूर तक गांवों मे फैल रही थी । नयी कविता के 'मार्क्सवादी' समर्थको ने इस प्रक्रिया को पूरा जोर लगाकर रोका; इससे कविता में यथार्थवादी धारा के सामने कठिनाइयां पैदा हुईं, वामपंथी आन्दोलन के प्रसार में बाधाएं उत्पन्न हुई । प्रतिकूल परिस्थितियो में भी केदार ओर नागार्जुन इस देश की पीड़ित जनता के साथ रहे, निराला के रिक्थ को संभाले हुए कविता में यथार्थवाद का विकास करते रहे, इसके लिए साहित्य और राजनीति के वामपक्ष को उनका कृतज्ञ होना चाहिए।
रूचिता के शिल्प का विवेचन उसकी विषयवस्तु के विवेचन से कठिन होता है पर विषयवस्तु को अलग रखकर उसका विवेचन नही किया जा सकता। कुछ विद्वानों ने प्रयोगवाद और नयी कविता को शिल्प की समस्याओं तक सीमित रखने का प्रयास किया है। वास्तव में इस तरह वे नयी कविता की विषयवस्तु पर पर्दा
डालते है। नयी कविता का आन्दोलन प्रगतिशील साहित्य के विरोध चालयी गया था, इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है। व्यक्तिमूल्य का नारा लगाकर इसने जनवादी आन्दोलनों का विरोध किया पर दस साल से भी समय में नयी कविता की धारा मूल्यहीनता के रेगिस्तान में खो गयी। इस समय मुक्तिबोध की बीमारी और मृत्यु से नयी कविता में नयी जान डालने के लिए उसक सूत्रधारों को नया हीरो-कवि मिल गया। इसी कम्युनिस्ट पार्टी विघटित हुई, इससे कुछ मार्क्सवादियों के लिए प्रगतिविरोधियों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने का काम आसन हो गया। केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन को पीछे ठेलकर उनकी जगह मुक्तिबोध को प्रतिष्ठित करने का जो संगठित प्रयास सन् 64 से आरंभ हुआ, उससे हिंदी कविता की यथार्थवादी धारा को भारी क्षति पहुँची। वह प्रयास अब अशक्त हो चुका है। समकालीन आलोचना में एक बार केदार और नागार्जुन के कृतित्व पर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। आशा है, इस पुस्तक की पूर्व संकलित सामग्री के साथ 'कविता में यथार्वाद और नयी कविता' निबंध पढ़ने से आधुनिक कविता की गतिशील और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि अधिक स्पष्ट होगी।
भूमिका
[ प्रथम संस्करण की ]
नई कविता से अनेक प्रकार की कविता का बोध होता है। किसी समय मार्क्सवाद से प्रभावित प्रगतिशील कविता को नई कविता कहा जाता था। प्रगतिशील कविता-धारा के बाद प्रयोगवादी कविता का बोलबाला रहा। इसे अधिकतर प्रयोगवादी ही कहा जाता था। नई कविता, प्रयोगवाद से भिन्न होकर, एक रूढ़ अर्थ में तब प्रयुक्त होने लगी जब 1954 में इलाहाबाद से 'नई कविता' नामक संकलन प्रकाशित होने लगा। आरम्भ में ये कविता वाले प्रयोगवाद से अपना सम्बन्ध जोड़ते थे। किन्तु प्रयोगवाद पर अशेय का एकाधिकार था; अज्ञेय से प्रयोग-बाद के आचार्यों की खटक गयी, तब नई कविता की धारा प्रयोगवाद से हटकर अलग प्रवाहित होने लगी। यह नई धारा बहुत-कुछ अस्तित्ववाद से प्रभावित थी। इसी से आगे चलकर वह धारा भी फूटी जो किसी भी जीवन-मूल्य को स्वीकार न करती थी।
नई कविता को प्रभावित करनेवाले अस्तिवादी से मुख्य टक्कर मार्क्सवाद की थी। नई कविता लिखनेवालों में शमशेर बहादुर सिंह और मुक्तिबोध दो ऐसे कवि है जो मार्क्सवाद से प्रभावित हैं। इस प्रकार नई कविता में अनेक प्रकार के कवि और अनेक प्रकार की काव्य-प्रवृत्तियाँ शामिल हैं। इस पुस्तक में मैंने इन काव्य-प्रवृत्तियों और कुछ कवितयों की रचनाओं का विवेचन किया है। मैंने इस धारणा का खण्डन किया है। 'तार सप्तक' के अधिकांश कवि मार्क्सवाद से प्रभावित थे। या कहीं उसके आसपास थे। इनमें कुछ ने 'तार सप्तक' के दूसरे संस्करण में, अपने वक्तव्यों में, अपनी पुरानी मान्यताओं की पुष्टि की है, कुछ ने उनमें संशोधन किया है।
'तार सप्तक' के दूसरे संस्करण में, अपने वक्तव्य में, अपनी मान्यताओं की पुष्टि मैंने भी की है। जहाँ तक याद है, मैंने अमरीकी साम्राज्वाद और उससे सम्बद्ध लेखकों का स्पष्ट विरोध किया था। किन्तु उस आशय का वाक्य मुद्रित वक्तव्य में नहीं है। इस वक्तव्य का मसौदा पुराने कागजों में मिला। उसके दो वाक्य इस प्रकार है। "समाजवादी शक्तियों का विरोध करना साम्राज्यवाद मुख्यत: अमरीकी साम्राज्यवाद-का काम है। इन प्रतिक्रियावादी शक्तियों का साथ देनेवाले कवि विषयवस्तु में कुण्ठा और घुटन, और रूप में अनपढ़ प्रतीक योजना के सिवा और कुछ नहीं दे सकते।"
इस संकलन के अधिकांश निबन्ध 1969 में लिखे गये थे, अन्तिम निबन्ध इस वर्ष-1977-का लिखा हुआ है।
अनुक्रम
1
नयी कविता : 'तार-सप्सक' से पहले
11
2
नयी कविता : 'तार-सप्तरु, बौर उसके बाद
20
3
नयी कविता : स्वाधीनता-प्राप्ति के वाद
30
4
नयी कविता : छायावाद और स्वाधीनता आन्दोलन
39
5
नयी कविता : क्रान्तिकारी विरासत से विद्रोह
47
6
नयी कविता : नये प्रतिमानों की खोच
56
7
छायावादोतर नयी छायावादी कविता
67
8
अज्ञेय और नवरहस्यवाद
78
9
शमशेर बहादुरसिंह का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता
88
10
अस्तित्ववाद और नयी कविता
102
मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता
132
नयी कविता के सन्दर्भ में नागार्जुन की काव्यकथा
153
12
नयी कविता और मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन
167
13
कविता में यथार्थवाद और नयी कविता
256
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