प्रस्तुत ग्रन्थ 'संस्कृत नाटिका उद्भव एवं विकास' में रत्नावली, प्रियदर्शिका, विद्धशालभंजिका, कर्णसुन्दरी, चन्द्रकला तथा वृषभानुजा नाटिका का नाट्यशास्त्रीय अध्ययन किया गया है।
'काव्येषु नाटकं रम्यं' द्वारा संस्कृत साहित्य में श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य का अधिक महत्व सदैव मनीषियों ने स्वीकार किया है। काव्य का प्राणतत्व रस है। रस की अनुभूति श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य से झटिति होती है क्योंकि श्रव्य काव्य में रसानुभूति के लिये अर्थ को समझना आवश्यक होता है जबकि दृश्य काव्य में अर्थ समझने की आवश्यकता नहीं होती। वामन ने दृश्य काव्य (रूपक) की समता चित्र से की है। जिस प्रकार चित्र भिन्न-भिन्न रंगों के सम्मिश्रण से दर्शकों के अन्तस् में रस प्रवाहित करता है उसी प्रकार नाटक भी वेशभूषा, नेपथ्य, अभिनय आदि उचित संविधानों से दर्शकों के हृदय पर अमिट प्रभाव डालता है। यही कारण है कि उन्होंने काव्यों में रूपक को विशेष महत्व दिया है।' कालिदास ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और इसे सामान्य के मनोरंजन का साधन बतलाया है। विश्व पटल पर सुख दुःख की जो अनुभूतियाँ अपनी क्रीड़ा से मानव जीवन को प्रभावित करती रहती हैं, उन सब का चित्रण नाटक में होने के कारण सारे ज्ञान, सभी शिल्प, सभी विधायें, समस्त योग तथा सभी कर्म रूपक में अन्तर्भूत होते देखे जाते हैं।
संस्कृत साहित्य में रूपकों अथवा नाटकों की परम्परा अति प्राचीन रही है। नाट्य रचना को लक्ष्य करके ही आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में नाट्य तत्वों का निरूपण किया है क्योंकि नाटक सामाजिक मनोरंजन तथा सांस्कृतिक उत्थान का मुख्य माध्यम समझा जाता था। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि संस्कृत साहित्य में नाट्य रचना की पुष्कल परम्परा सुरक्षित है।
इन रूपकों के अनुशीलन से भारतीय जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है। अपनी पुरातन सामाजिक तथा सांस्कृतिक धरोहर को समझने के लिये संस्कृत साहित्य में उपलब्ध प्रभूत नाट्य-परम्परा का अध्ययन आवश्यक बन जाता है। नाटिकायें रूपकों के वर्गीकरण में अपना निश्चित महत्व रखती हैं। सीमित तथा संक्षिप्त परिधि में वे भी तत्कालीन भारतीय समाज तथा जीवन-चिन्तन और काव्य-शास्त्र से सम्बन्धित रूढ़ियों अथवा मान्यताओं को सुन्दर रीति से आलोकित करती हैं। इनके वस्तुविन्यास विषयक शैल्पिक अनुशीलन से हमें नाट्यकला, नाट्यांगों, रस इत्यादि की प्रचुर सम्पदा उपलब्ध होती है, जो हमारी साहित्य सम्बन्धी मान्यताओं को अधिक समृद्ध तथा प्राञ्जल बनाती हैं। कभी-कभी इन नाटिकाओं में ऐसी सूक्ष्म भावच्छवियाँ परिलक्षित होती हैं जो हमें सहसा चमत्कृत कर देती हैं। संस्कृत साहित्य में अद्यापि इन नाटिकाओं का सांगोपांग एकत्र अध्ययन हमारी जानकारी में नहीं हुआ है। इसी कमी की पूर्ति के लिये यह ग्रन्थ प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस ग्रन्थ में कुल दस परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्य का स्वरूप और उसके भेद, दृश्य काव्य की महत्ता तथा इसके लिये प्रयुक्त होने वाले नाटक, रूपक, रूप इत्यादि नामों की सार्थकता पर विचार किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में नाट्यशास्त्र की परम्परा और नाटकों की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय परिच्छेद में रूपकों का वर्गीकरण तथा उसमें नाटिका का वैशिष्ट्य स्पष्ट किया गया है। चतुर्थ परिच्छेद में रूपकों के भेदक-तत्व-वस्तु, नेता और रस का विवेचन किया गया है। पंचम परिच्छेद में नाटिकाओं के विकास के विषय में विवेचन किया गया है। षष्ठ परिच्छेद में उपलब्ध नाटिकाओं का परिचय दिया गया है। सप्तम परिच्छेद में वस्तु, नेता और रस की दृष्टि में उपर्युक्त नाटिकाओं का अध्ययन किया गया है। अष्टम परिच्छेद में उक्त नाटिकाओं के शिल्पगत-विधान पर प्रकाश डाला गया है। नवम् परिच्छेद में उपलब्ध नाटिकाओं में प्रकृति-चित्रण का वर्णन किया गया है। दशम परिच्छेद में उक्त नाटिकाओं की उपलब्धियाँ तथा उपसंहार की प्रतिष्ठा की गयी है।
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