मैंने राम रतन धन पायो (मीरा दीवानी पर चर्चा सुहानी): Osho on Mirabai

$45
Item Code: NZA634
Author: Osho Rajneesh
Publisher: OSHO Media International
Language: Hindi
Edition: 2010
ISBN: 9788172612498
Pages: 318 (18 B/W illustrations)
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch X 7.0 inch
Weight 660 gm
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Book Description

पुस्तक के विषय में

 

ओशो प्रेम की एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है, जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं। और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील में। हंस बनो, तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।

हंस बनने का अर्थ है: मोतियों की पहचान आंख में हो, मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे! कुछ और से राजी मत हो जाना। क्षुद्र से जो राजी हो गया, वह विराट को पाने में असमर्थ हो जाता है। नदी-नालों का पानी पीने से जो तृप्त हो गया, वह मानसरोवरों तक नहीं पहुंच पाता; जरूरत ही नहीं रह जाती। मीरा की इस झील में तुम्हें निमंत्रण देता हूं। मीरा नाव बन सकती है। मीरा के शब्द तुम्हें डूबने से बचा सकते हैं। उनके सहारे पर उस पार जा सकते हो।

प्रस्तावना

 

प्रस्तुत कृति ओशो द्वारा मीरा के पदो पर दिए हुए प्रवचनों का सग्रह है । ओशो के अनुसार यह प्रवचन नहीं बल्कि मीरा के प्रेम की झील मे नौका-विहार के लिए निमंत्रण-पत्र है यह प्रेम की झील बडी अदभुत, बड़ी अनुपम है, क्योंकि यह झील पानी की नही, मीरा के आसुओ का मानसरोवर है इस मानसरोवर में जो निर्मलता हैं वह शायद गंगाजल मे भी नही है ।

मीरा को समझना बहुत कठिन है । काव्यशास्त्र की दृष्टि से अथवा तर्क और शान की दृष्टि से यदि आप मीरा को समझना चाहेगे तो चूक जाएंगे, क्योंकि मीरा न कविता है न शास्त्र । वह प्रेम-पीड़ा की एक अदभुत अनुभूति है । मीरा शरीर नही है । मीरा के रूप में भक्ति शरीर धारण करके खड़ी हो गई है ।

निराकार जब तुम्हें दिया आकार

स्वयं साकार हो गया।

प्रेम की इस साकार प्रतिमा की आंखों का एक-एक आंसू एक-एक छंद है और एक-एक पद एक-एक खंड काव्य है । जैसे अपने गिरधर-गोपाल तक पहुचने के लिए मीरा लोक-लाज, कुल-कानि, मान-मर्यादा, घर-द्वार सब कुछ छोड़ चुकी है, उसी प्रकार जब तक शान के सारे सूत्र, तर्क के सारे छल, काव्य की सारी कलाएं आप भूलने के लिए तैयार नहीं है तब तक आप मीरा के पास नहीं पहुंच सकते मीरा के आंसुओं ने प्रेम के जितने रंग बिखेरे हैं उनको आंकने के लिए न तो कोई तूलिका और न कोई काव्यशास्त्र ही समर्थ है प्रेम के रास्ते पर चलते-चलते मीरा वहा जा पहुची है जहा उसे अपने होने का भी होश नहीं है-

हम तेरी चाह में अय यार वहां तक पहुंचे

होश ये भी न जहां है कि वहां तक पहुंचे।

जब तक होनेका होश है तब तक न होनेकी भूमिका मे प्रवेश नही हो सकता ये तभी संभव है-

वो न ज्ञानी, न वो ध्यानी, बिरहम, न वो शेख,

वो कोई और थे जो तेरे मकां तक पहुंचे।

अनुक्रम

 

1

प्रेम की झील में नौका-विहार

9

2

समाधि की अभिव्यक्तियां

37

3

मैं तो गिरधर के घर जाऊं

67

4

मृत्यु का वरण अमृत का स्वाद

95

5

पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे

123

6

श्रद्धा है द्वार प्रभु का

153

7

मैने राम रतन धन पायो

187

8

दमन नही-ऊर्ध्वगमन

217

9

राम नाम रस पीजै मनुआं

247

10

फूल खिलता है अपनी निजता से

279

 

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