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पाणिनीयप्रवेशिका- Paniniya Praveshika (An Old and Rare Book: Only 1 Quantity Available)

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Specifications
Publisher: Uttar Pradesh Sanskrit Sansthan
Author Edited By Pramod Kumar Sharma
Language: Sanskrit Only
Pages: 103
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 260 gm
Edition: 2014
HCA054
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Book Description

प्रकाशकीय

अन्वेषण, संरक्षण एवं प्रकाशन की श्रृंखला में प्रस्तुत अभिनव तथा बहुमूल्य ग्रन्थ 'पाणिनीयप्रवेशिका' का प्रकाशन किया जा रहा है। जैसा कि आप सभी पाठक महानुभावों को यह विदित है कि उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान संस्कृत भाषा के संरक्षण संवर्द्धन एवं प्रचार-प्रसार के लिये प्रतिबद्ध है। व्याकरणशास्त्र के प्रख्यात मनीषी डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा अपने छात्रावस्था में विश्वनाथ की नगरी में रहकर पाणिनीयव्याकरण का अद्वितीय वैदुष्य प्राप्त कर वर्तमान समय में अपराकाशी के नाम से प्रसिद्ध राजस्थान की राजधानी जयपुर नगर में स्थित जगद्गुरुरामानन्दचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के व्याकरण विभाग के उपाचार्य पद पर काय कर रहे हैं। इन्होंने ही इस महनीय ग्रन्थ का प्रणयन किया है। इन्हीं के प्रधानसम्पाकत्व में डॉ. विष्णुकान्त पाण्डेय एवं डॉ. भास्कर शर्मा द्वारा इस ग्रन्थ का सम्पादन किया गया है। अतः ग्रन्थ के लेखक के साथ-साथ सम्पादकद्वय भी अत्यन्त धन्यवादार्ह हैं। इस ग्रन्थ की प्राप्ति के पश्चात् इसके प्रकाशन प्रक्रिया में इस संस्थान के माननीय अध्यक्ष महोदय की सहर्ष अनुमति मिलने पर हम आज इस ग्रन्थ को आप सभी के समक्ष प्रकाशन कर प्रस्तुत कर रहे हैं। मुझे यह निश्चित विश्वास है कि अवश्य ही यह ग्रन्थ संस्कृत व्याकरण के विद्वानों व अध्येताओं के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगा।

प्रधानसम्पादकीय

इस ग्रन्थ के प्रणयन की प्रेरणा भवानीविश्वनाथ के कृपापूर्ण शुभाशीर्वाद से मुझे प्राप्त हुयी थी। अत एव इस ग्रन्थ का प्रारम्भ भगवान शिव का स्मरण करते हुए किया गया है। मेरे द्वारा लघु बालकों को व्याकरणशास्त्र में प्रवेश कराने के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया है, अतः इस ग्रन्थ का कोई भी अध्येता अत्यन्त सुकुमारमति सम्पन्न वह जिज्ञासु छात्र है जो संस्कृतव्याकरण को आसानी से न केवल समझना ही अपितु उसमें प्रवेश पाना चाहता है। अत एव इस ग्रन्थ में कहीं भी पदकृत्य, प्रत्युदाहरण, प्रश्न, प्रतिप्रश्न नहीं किया गया अपितु इसकी स्थिति से सदैव कोशों दूर रहते हुए मात्र शब्द सिद्धि प्रक्रिया को ही जटिलता से हटाकर सरल, सुगम, सुबोध रूप में प्रस्तुत किया गया है।

महेश्वर भगवान शिव की कृपा से इस ग्रन्थ की हिन्दी सहित सरलतम संस्कृत व्याख्या मेरे द्वारा लिखी जा चुकी है जो अति शीघ्र ही प्रकाशित की जायेगी, जिसमें सभी प्रश्न, प्रतिप्रश्न, पदकृत्य, प्रत्युदाहरण तथा अन्यान्य उदाहरण जिज्ञासाओं शङ्काओं आशङ्काओं का समावेश पूर्वक समाधान प्रचुर मात्रा में देखने व पढने को प्राप्त होगा क्योंकि टीका या व्याख्या लिखने का यही मूल उद्देश्य होता है। अतः यह सब व्याख्या में ही रखना चाहिये न कि मूल ग्रन्थ में। यहाँ पर तो सर्वप्रथम स्वबुद्धिस्थ ग्रन्थ को ही मूलरूप में सोदाहरण प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास मात्र किया गया है। जिसे स्वल्प समय में ही कण्ठस्थ कर छात्रवर्ग के लिए पाणिनीय अष्टाध्यायी में सीधे प्रवेश प्राप्त कर पाना तथा महाभाष्यादि दुरूह ग्रन्थों का रहस्य समझना अत्यन्त सरल तथा सुग्राह्य हो सकेगा, यही इस ग्रन्थ का प्रमुख उद्देश्य है।

पाणिनीयप्रवेशिका नामक इस ग्रन्थ में मेरे द्वारा मात्र ४७२ सूत्रों तथा ०७वार्तिकों, स्वनिर्मित दो वार्तिकों तथा ११ परिभाषा-न्याय वचनों को ही चयनित कर यथा क्रम प्राप्त ग्रन्थ के तत्तत्प्रकरणों में सुनियोजित कर आवश्यकतानुसार व्यवस्थित किया गया है। वर्तमान समय में तो विद्वद्वरवरदराजाचार्य प्रणीत ग्रन्थ लघुसिद्धान्तकौमुदी से ही संस्कृत व्याकरण का अध्ययन आरम्भ होता है जिसमें १२७२ पाणिनीय सूत्र हैं तथा ११६ वार्तिकों का उपयोग किया गया है तथा शब्दसिद्धि प्रक्रिया भी जटिलता युक्त प्रतीत होती है। सुद्धयुपास्यः जैसे प्रयोगों को प्रारम्भ में ही पढकर आज का छात्र व्याकरण ग्रन्थ को दूर से ही नमस्कार कर छोड देता है, अतः लघुसिद्धान्तकौमुदी की अपेक्षा इस ग्रन्थ में कम से कम ८०० सूत्रों तथा १०७ वार्तिकों को युक्तिपूर्वक हटा कर छोटा कर दिया है। अतः यह ग्रन्थ लघुसिद्धान्तकौमुदी की तुलना में स्वल्प तथा परमलघु है।

इस ग्रन्थ का प्रारम्भ संज्ञाप्रकरण से होता है जिसे चार घाटों में विभाजित कर वैज्ञानिक ढंग से सरलतम रूप में सुस्पष्ट उपस्थापित किया गया है। इस प्रकरण में स्वरों के मात्र तीन भेद ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत ही दर्शाये गये हैं, तथा बाह्य प्रयत्नों को नहीं दर्शाया गया है। संज्ञा प्रकरण को पढने के बाद छात्र के मन में ग्रन्थ के प्रति उत्साह और आत्म विश्वास जाग्रत हो उठता है, जिससे छात्र आगे के प्रकरण अच्सन्धि, प्रकृतिभाव, हल्सन्धि, विसर्गसन्धि पर्यन्त शीघ्र ही विना किसी रुकावट के विषय के प्रति अपना धैर्य तथा रुचि स्थापित कर आत्मविश्वास के साथ सुबन्तप्रकरण में कब प्रवेश पा जाता है इसका पता ही नहीं चलता। इस प्रकरण में एकशेष करने की प्रक्रिया को नहीं दिखाया गया है क्योंकि एकशेष से पहले द्वन्द्वसमास आदि की समस्या पैदा होती है, अतः इसका उल्लेख इस ग्रन्थ में नहीं किया गया है। सुबन्तप्रकरण में पहले सर्वनाम तत्पश्चात् विशेषनाम को पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग इन तीनों लिंगों में विभक्त कर क्रमशः दर्शाया गया है। तथा इस प्रकरण में मात्र १७ सर्वनाम शब्द ही दर्शाये गये हैं जो सामान्यतः प्राथमिक व्यवहारोपयोगी तथा आवश्यक माने जाते हैं।

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