मेरा लौकिक व्यवसाय चार्टर्ड एकाउण्टेन्ट का है। स्थूल धन से सम्बन्धित मामलों में मुझे सब के सम्पर्क में आना पड़ता है। स्थूल धन के प्रति दृष्टिकोण कैसा हो और वह सफल कैसे हो, यह मार्गदर्शन भी सभी को देना पड़ता है।
मेरे व्यवसाय के प्रारम्भिक दिनों में मेरे एक मुवक्किल ने मुम्बई में एक मकान बनाया था जिसे वह किरायेदारों को पगड़ी (Goodwill) से देना नहीं चाहता था। वह मानता था कि ऐसा करने से जो काला धन घर में आता है उससे परिवार के सदस्यों का और बच्चों का जीवन बरबाद हो जाता है और ऐसा धन व्यसनों आदि की तरफ खींचता है। इसके बाद जब मैंने प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय का ज्ञान लिया तो मुझे मालूम पड़ा कि सभी को अपना तन, मन, धन सफल करना है अर्थात् उसे विश्व परिवर्तन के कार्य में लगाना है और यहाँ के कई भाई-बहनों के जीवन से मुझे यह भी मालूम पड़ा कि स्थूल धन से जीवन में श्रेष्ठ धारणायें भी निर्मित होती हैं और धन द्वारा सबकी, सर्व प्रकार की सेवा भी की जा सकती है। ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर मुझे पवित्र धन के बारे में विशेष जानकारी मिली।
स्थूल धन थोड़े समय के लिए काम में आता है। शरीर छूटने के बाद उसके मालिक, वारिस बच्चे ही बनते हैं। यदि कमाने वाला मालिक अपने धन को पुण्य के कार्यों में खर्च करता है तो उसका पुण्य का खाता बनता है। मुझे ईश्वरीय ज्ञान द्वारा यह भी मालूम पड़ा कि भक्ति के आधार पर किए गए पुण्य कर्म का फल अगले एक जन्म तक ही सीमित होता है किन्तु परमपिता परमात्मा की श्रीमत के आधार पर धन के सफल प्रयोग के परिणामस्वरूप 21 जन्मों की श्रेष्ठ प्रारब्ध प्राप्त होती है। इसका वास्तविक सबूत है प्रजापिता ब्रह्मा का व्यक्तिगत जीवन। उन्होंने अपने स्थूल धन से इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय की स्थापना की, शुरू-शुरू में सबकी पालना भी की और वही धन रूपी बीज आज एक विशाल वट वृक्ष के रूप में देश-विदेश में ईश्वरीय ज्ञान एवं सहज राजयोग की शिक्षा के निमित्त केन्द्रों के रूप में फैल गया है। जैसे ब्रह्मा बाबा ने अपने पवित्र धन को सफल किया और नए सतयुगी विश्व में विश्व महाराजन श्री नारायण के रूप में श्रेष्ठ प्रालब्ध पाई, उसी प्रकार, सब आत्मायें अपने स्थूल धन का सदुपयोग करके श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ पद प्राप्त कर सकें, इसी लक्ष्य को लेकर पवित्र धन के बारे में मेरा विचार सागर मंथन चलता रहा है।
पवित्र धन अर्थात् जिस धन का उपार्जन करने में हमने पवित्र पुरुषार्थ किया हो। वह पुरुषार्थ किसी भी प्रकार के विकारों से प्रभावित ना हो। वह धन त्याग, तपस्या और सेवा के भाव से निर्मित किया गया हो, उसी पवित्र धन से सर्वश्रेष्ठ प्रालब्ध मिल सकती है। इस प्रकार की अनेक बातों को लेकर के ज्ञानामृत मासिक पत्रिका में लगभग 5 वर्ष तक क्रमवार लेख लिखता रहा। पाठकों की ओर से मुझे प्रेरणादायी पत्र प्राप्त होते रहे क्योंकि लेखों के द्वारा श्रेष्ठ प्रेरणायें पाकर उनका जीवन तथा धन दोनों ही धन्य-धन्य हुए। पाठकों की ही शुभ राय से इस लेख माला को एक किताब के रूप में प्रकाशित किया गया है।
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