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फणीश्वरनाथ रेणु- Phanishwar Nath Renu: Evaluation of the Story World of 'Renu'

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Specifications
Publisher: Penguin Books India Pvt. Ltd.
Author Dakshineshwar Prasad Rai
Language: Hindi
Pages: 256
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
Weight 210 gm
Edition: 2025
ISBN: 9780143471356
HBR669
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Book Description

About the Book

हिंदी आलोचना को आंचलिक उपन्यास शब्द देने का सारा श्रेय फणीश्वरनाथ रेणु' को है। 1954 ई० में प्रकाशित मैला आँचल का परिचय देते हुए उन्होंने लिखा है- "यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कांचल है पूर्णिया।” यदि रेणुजी ने स्वयं इसे आंचलिक उपन्यास नहीं कहा होता तब भी हिंदी में आंचलिक उपन्यासों की चर्चा होती, इसमें पूरा संदेह है। इसीलिए आंचलिक उपन्यास के सूत्रपात का सारा श्रेय फणीश्वरनाथ रेणु' को प्राप्त हुआ। दशकों में भी आंचलिक उपन्यास का स्वरूप अस्पष्ट ही बना हुआ है। प्रस्तुत ग्रंथ के लेख भी इस अस्पष्टता के साक्षी हैं। आंचलिक उपन्यास के स्वरूप के संबंध में अभी तक जो भ्रम बना हुआ है उसके कारण ऐसे कथन भी सुनने को मिल जाते हैं कि आंचलिकता और समकालीनता में विरोध मानकर चलने की प्रवृत्ति स्वस्थ नहीं कही जा सकती। स्थानीय रंग को ही आंचलिकता मान लेने के कारण ऐसी भ्रांति हो रही है। निस्संदेह स्थानीय रंग में देशीयता ही नहीं, समकालीनता भी होती है। किंतु स्थानीय रंग के कारण ही उपन्यास को आंचलिक मान लेना निरा भ्रम है। अतः रेणु' के विषय में कुछ कहने के पूर्व आंचलिक उपन्यास के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास परमावश्यक है।

सर्वप्रथम इसके संबंध में परिव्याप्त भ्रांति का ही निराकरण किया जाए। आंचलिकता के संबंध में लेखकों, पाठकों और विद्वानों में एक आंत धारणा यह प्रचलित है कि नगरेतर जीवन पर लिखे गए उपन्यास, जिनमें स्थानीय रंग का प्राचुर्य हो और जिनकी भाषा भी स्थान विशेष की बोली की शब्दावली से बोझिल हो, वही आंचलिक उपन्यास है। किंतु सत्य बात यह है कि स्थानीय रंग उपन्यास का कोई तत्व नहीं हो सकता, किसी औपन्यासिक कृति की विशेषता भले हो सकता है। अतः स्थानीय रंग ही यदि आंचलिकता का आधार हो तब तो आंचलिक उपन्यास का पृथक् वर्ग माना ही नहीं जा सकेगा। यह है कि स्थानीय रंग प्रत्येक उपन्यास में कुछ न कुछ अवश्य होता है, चाहे वह ग्राम-जीवन पर आधारित हो अथवा नगर-जीवन पर। गाँवों की अपेक्षा नगरों का जीवन बहुत कुछ वैविध्य रहित होता है, फिर भी सभी नगरों की अपनी विशेषताएँ होती हैं जिनके चिलण के बिना उनको घटना भूमि बनाकर लिखा गया उपन्यास स्वाभाविक नहीं हो सकता। हाँ, सभी उपन्यासों में स्थानीय रंग की माला समान नहीं होती, पर किसी विशेषता का अल्पाधिक कलात्मक मूल्य का मापदंड हो सकता है, वर्गबद्धता का आधार नहीं हो सकता।

प्रश्न है, आंचलिक उपन्यासों का विवेकपूर्ण गुण क्या है। इस प्रश्न का सटीक उत्तर पाने के लिए इसका निर्णय कर लेना आवश्यक होगा कि आंचलिक उपन्यास का विलोम क्या है। इस निर्णय से आंचलिक उपन्यासों के स्वरूप निर्धारण में सुविधा होगी। आंचलिक उपन्यास का विलोम है व्यक्तिपरक उपन्यास । व्यक्तिपरक उपन्यास वह है, जिसमें कथा का केंद्र कोई व्यक्ति होता है, शास्त्रीय शब्दों में जिसमें कोई अधिकारी अथवा नायक होता है। आंचलिक उपन्यास में कथा का केंद्र कोई स्थान, क्षेत्र, ग्राम, अंचल आदि होता है। यह ठीक है कि मनोवैज्ञानिक उपन्यासों को छोड़कर शेष प्रकार के उपन्यास भी किसी विशेष भूखंड के जीवन का परिचय देते हैं,

किंतु व्यक्तिपरक उपन्यास का वह प्रत्यक्ष उद्देश्य नहीं होता। उसमें नायक के जीवन को ही इतनी समग्रता और सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया जाता है

कि वह अपने क्षेत्र के सामान्य जीवन को भी प्रभावित कर देता है। इसके विपरीत आंचलिक उपन्यासों में किसी अंचल विशेष के समग्र जीवन को चित्रित करना ही एकमात्न उद्देश्य होता है और इसके लिए वह संबद्ध अंचल से विविध पात्नों का चयन करता है जिनके माध्यम से कथा निर्माण होता है। आंचलिंक उपन्यास के लेखक का सारा ध्यान संबद्ध मंचन पर रहता है, जबकि व्यक्तिपरक उपन्यास के रचयिता का ध्यान नायक पर रहता है। अर्थात् आंचलिक उपन्यास का नायक कोई एक पान विशेष नहीं होता, उसमें नायक यदि कोई होता है तो वह संबद्ध अंचल ही होता है। आंचलिक उपन्यास की संरचना में किसी एक पात्ल को नायकत्व नहीं दिया जा सकता है। आंचलिक उपन्यास का विवेकपूर्ण धर्म यही है।

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