सामवेदीय शाखा के उपलब्ध ब्राह्मणग्रन्थों में जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण विविध विषय विवेचना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण ग्रन्थ है। महर्षि जैमिनी इसके प्रधान आचार्य रहे हैं। गायत्र, गायत्री का इसमें विस्तृत विवेचन होने के कारण यह 'गायत्र्युपनिषद् ब्राह्मण' और 'तलवकार ब्राह्मण' इस अन्य नाम से भी जाना जाता रहा है। इसी सामवेदीय ब्राह्मण को लक्ष्यकर "जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण में निहित दार्शनिक सिद्धान्त" नामक ग्रन्थ की सर्जना की गयी है।
इसमें आध्यात्मिक एवं दार्शनिक मूलबिन्दुओं व सिद्धान्तों के बाहुल्यस्वरूप इसका शोधपरक चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। सृष्टिविषयक तत्त्वों के अन्तर्गत सृष्टि की कारणावस्थाओं, सृष्टिगत यज्ञीयावधारणा, सृष्टि-प्रक्रिया व उससे पूर्व की अवस्थाओं तथा प्रजापति का सिसृक्षत्वादि इस मूलभूत निहित दार्शनिकता का प्रतिपादन इसमें किया गया है, वहीं पर वैदिक चिन्तन को पर्याप्त आयाम देने वाली दिव्य-शक्ति की अवधारणा का वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर है। आत्मतत्त्व मीमांसा, परलोक, स्वर्गनरक, पितृयान- देवयानादि मार्ग, दैवी संसद् आदि चिन्तन की अपनी शैली में रोचक व ज्ञानवर्धक प्रस्तुति है।
इस ब्राह्मण में प्रमुख शोध तथ्य व तत्त्व तो गायत्र, गायत्री, ओंकार, उद्गीथ, उक्थ, सप्तविध साम, स्तोम, सामगत भक्तिविधा, वाक्, प्राण तथा साम का सप्तविध मिथुनत्व, मर्त्यमर्त्य का ज्ञेयत्त्व, एतत्सम्बन्धि अनुभव, आन्तरीय रहस्य, मुक्ति व अमृतत्व विषयक अवधारणा ही है जो दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टि से सुतराम नूतन दिशाबोधक विश्लेषणपरक शोध की अपेक्षा से प्रस्तुत है।
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