पत्रों के ज़रिए इस किताब में कही गई कहानी शाश्वत है। इन्हें मेरे परदादा ने मेरी दादी इंदिरा गांधी को तब लिखा था, जब वो छोटी सी बच्ची थीं। इनमें उन्होंने अपनी बेटी को इस संसार के आश्चर्यों की जानकारी दी थी, जिसमें हम रहते हैं। मेरे परदादा की इतिहास की समझ इतनी आधुनिक और उदारवादी थी कि ये किताब आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि तब थी।
मैंने इन पत्रों को पहली बार बोर्डिंग स्कूल में पढ़ा था, तब मैं ग्यारह साल की थी। यानी इन्हें लिखे हुए पचपन बरस बीत चुके थे, मगर फिर भी इन्होंने मुझे मुग्ध कर दिया। मैं घर लौटी तो दादी से पूछने के लिए मेरे दिमाग में सैकड़ों प्रश्न घुमड़ रहे थे। अधिकांश लोगों को इंदिरा गांधी एक गंभीर और सख्तमिज़ाज व्यक्ति लगती थीं। मगर वास्तव में वो बेहद स्नेही और ममतामयी थीं। ये मेरा और मेरे भाई का सौभाग्य था कि हम उनके घर में बड़े हुए। उनके सान्निध्य में हमें बहुत अच्छा लगता था-उनके साथ होना बहुत मज़ेदार होता था, वो जन्मजात शिक्षक थीं, हर चीज़ में हमारी दिलचस्पी जगातीं, और अपने आसपास की दुनिया के प्रति हमारे दिमाग़, आंख और कान खोलतीं। लॉन में ज़रा देर ही उनके साथ टहलना अपने आप में एक एडवेंचर और खोज हुआ करती थी, वो हमें नन्हे से पत्थर में भी उसके चक्र और टेक्सचर देखना, तितली के पंखों के इंद्रधनुषी रंगों को सराहना, और आसमान में सितारों को पहचानना सिखातीं। उनकी कहानियों और जो खेल हम खेलते थे, उनकी वजह से लंच और डिनर का समय तो हमारे लिए दुनिया के इतिहास और सभ्यता को जानने का रोचक सबक़ होता था। इतिहास और प्रकृति के प्रति जो प्रेम उनके पिता ने उनमें भरा था, वो मेरे लिए दादी का मुझे दिया अनमोल तोहफ़ा है।
मुझे आशा है कि ये पुस्तक आपको 'प्रकृति की पुस्तक' को पढ़ने में मददगार साबित होगी, जोकि आश्चर्यजनक कहानियों से अटी पड़ी है, और आपको इस विषय में जवाहरलाल नेहरू के विचारों से प्रेरित करेगी कि वो क्या चीज़ है जो किसी देश और उसके वासियों को महान बनाती है। साथ ही मुझ ये भी आशा है कि आपको भी पिता के पत्र पढ़कर उतना ही आनंद आएगा, जितना मुझे इसे पढ़ने में आया था।
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