इस से पहले, विश्वेश्वरानन्द संस्थान की ओर से छः ग्रन्थमालाओं का प्रकाशन चल रहा है। लगभग १०० ग्रंथ छप चुके हैं। मार्च, १६५२ से संस्थान का हिन्दी मासिक मुख-पत्र, विश्व-ज्योति प्रचलित हो चुका है। वर्तमान सातवीं ग्रन्थमाला, जिस में लेखक का लिखा हुआ दूसरा ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है, संस्थान के परम भक्त, स्व. श्री धनीराम भल्ला जी की पुण्य स्मृति में आज से एक मास पूर्व अप्रैल २६, १६५२ को, उन की दुबरसी के अवसर पर श्री चारुदेव शास्त्री के भारतीय संस्कृति नामक ग्रंथ के साथ प्रारम्भ की गई थी ।
स्व. पुण्यात्मा धनीराम भल्ला जी पंजाब-गत होश्यारपुर नगर के पार्श्ववर्ती बजवाड़। उपनगर के रहने वाले थे। आप के पिता, स्व. श्री छज्जू राम जी पारिवारिक संबन्ध द्वारा पंजाब के प्रसिद्ध महापुरुषों स्व. श्री मुल्कराज जी, स्व. महात्मा हंसराज जी और स्व. आचार्य रामदेव जी के चचा होते थे । श्री धनीराम जी को नौ-दस बरस के लिए ही विद्या प्राप्त करने का अवसर मिल पाया था। परन्तु उन्होंने अपनी स्वाभा-विक बुद्धि, ज्ञान-रुचि धीरता और पुरुषार्थ के द्वारा बहुत ऊंचे दर्जे की व्यावहारिक निपुणता लाभ कर ली थी। बीस बरस की अवस्था में उन्होंने लाहौर में जूतों का व्यापार प्रारम्भ किया । उस समय ऊंची कहलानै वाली बिरादरियों के लोग चमड़े के काम-धंधे से घृणा किया करते थे और प्रायः अभी तक करते हैं। परन्तु श्री धनीराम भल्ला जी ने इस मिथ्या घृणा को छोड़ कर वीरतापूर्वक उक्त कार्य-क्षेत्र में प्रवेश किया । न केवल यही, वरन् उन्होंने अपनी सफलता द्वारा अन्य सहस्रों अच्छे-अच्छे कुलों के लोगों को उस में प्रवृत्त भी किया। उनके चमत्कारी व्यक्तित्व से संतुष्ट होकर "फलैक्स" की अंग्रेज़ी कम्पनी ने उन्हें भारत, पाकिस्तान, लंका और बर्मा भर के लिए अपना मुख्य आढ़तिया नियत किया। उन्होंने उस कार्य को बड़ी उत्तम रीति से संगठित किया और उस में पूर्णतया सफल हुए। परन्तु जैसे-जैसे श्राप की धन संपत्ति भी बढ़ती गई, वैसे-वैसे आप की धर्म-संपत्ति भी बढ़ती गई। आप के हाँ दान-पुण्य का तांता लगा रहता था । कोई अथर्थी आप के द्वार से निराश नहीं लौटता था ।
आप प्रतिदिन अपने तीन-चार घण्टे स्वाध्याय और यज्ञ-कर्म द्वारा सफल करते थे। विशेष बात यह थी कि आप के अन्दर सांप्रदायिक संकीर्णता का अभाव था । आप सब देशों और समयों के मान्य महापुरुषों और महा-ग्रन्थों का आदर और उन की शिक्षाओं का मनन करते रहते थे। आपकी इस उदार मति और प्रेम-भावना को देख कर स्व. महात्मा गांधी जी और स्व, कवींद्र रवींद्र ठाकुर ऐसे महानुभाव प्रसन्नता पूर्वक आप की कोठी पर जा कर उतरते थे। आप ने आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व धर्मार्थ की पवित्र प्रेरणा से प्रेरित हो कर होश्यारपुर और बजवाड़ा के बीचों-बीच साधु-आश्रम का विशाल भवन बनवाया था। आप की धार्मिक प्रीति ही १६४७ के अंत में लाहौर से उखड़े हुए हमारे संस्थान को इस आश्रम में खींच लाई थी। आाप प्रति वर्ष इस आश्रम में यज्ञ और सत्संग का विशेष सप्ताह मनाया करते थे। आप का विचार था कि अब सांसारिक काम-धंधे को अपने योग्य सुपुत्रों को सौंप देंगे और स्वयं इस आश्रम में निवास धारण करके अपना शेष सारा समय ज्ञान, ध्यान और परोपकार के कामों में अर्पण करेंगे। परन्तु ऐसा अवसर आप पा न सके, क्योंकि आप १६५० के वार्षिक यज्ञ और सत्संग से निपट कर जब २६ अप्रैल को मसूरी पधारे, तो अचानक हृद्-गति रुक जाने से बासठ वर्ष की आयु में आप का शरीर शांत हो गया। अब यह आश्रम ही आपके धर्म-भाव का पवित्र स्मारक है। और यहाँ पर बनी हुई आप की समाधि आने-जाने वाले को, मानो, यह प्रेरणा कर रही है कि, "भाई, समय निकला जा रहा है, जो कुछ करना है, आज और अभी कर ले !
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