मानव सभ्यता के विकास-क्रम में अग्नि की खोज सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसने मानव जीवन में अनेक गुणात्मक परिवर्तनों को जन्म दिया और उसकी वैश्विक विस्तृति को व्यापक आधार प्रदान किया। विश्व की प्रायः सभी संस्कृतियों में अत्यन्त प्राचीन काल से ही धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन में अग्नि की भूमिका ऐतिहासिक तौर पर अप्रतिम रही है जिसने सांस्कृतिक रूप-लाभ को नवीन आयाम दिये और उसके परिणामस्वरूप धार्मिक जीवन से लेकर लोकजीवन तक मानव जीवन ने अपने नैरन्तर्य का इतिहास रचा। भारतीय संस्कृति में विशेषकर धार्मिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में नित्य-नैमित्तिक धर्मों के निवर्हन में अग्नि की निर्विवाद उपस्थिति लोकजीवन में उसके अवदान का स्पष्टतम रेखांकन है जिसका गहन एवं रोचक अध्ययन इस ग्रन्थ के लेखक डॉ. सुनील कुमार ने अपनी लेखनी से प्रस्तुत किया है। न केवल साहित्यिक अपितु पुरातात्विक साक्ष्यों के तथ्य-परीक्षण एवं विश्व की अधिकांश पुरावृत्तीय आख्यानों में प्राप्त अग्नि के खोज एवं आरम्भिक उपयोग से सम्बन्धित कथाओं के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण के द्वारा उन्होंने अपनी इस कृति को अत्यन्त रूचिकर एवं विद्वत्समाज के लिए ग्राह्य बनाया है। प्राचीन भारतीय लोकजीवन में अग्नि के अध्ययन को पुरातात्विक रूप से पूर्व पाषाण कालीन सभ्यता के प्रारम्भिक दिनो से आरम्भ कर पूर्व वैदिक और कालान्तर के ऐतिहासिक विकास को अत्यन्त सरल, सहज किन्तु गवेषणापूर्ण प्रस्तुति में डॉ. सुनील ने एक महत्वपूर्ण प्रयास को आकारित किया है जिसके लिये वे बधाई के पात्र है। मुझे आशा है कि वे भविष्य में ऐसी अनेक कृतियों का प्रणयन करेंगे और इतिहास के विद्यार्थियों और जिज्ञासुओं को और भी अधिक लाभान्वित करेंगे। मैं उनकी कृति एवं कृतित्व की सराहना करता हूँ।
विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में यह सर्वस्वीकृत तथ्य है कि 'सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा' का उद्घोष प्रथमतः भारत की वैदिक मनीषा के मुख से उच्चरित हुआ। गति, श्रुति, सत्य और तपस् के कारण उसकी महनीयता, मनस्विता और आर्षता समादृत रही है। इसलिए तप, ताप, प्रताप के चिन्तन से जगत को आलोकित करने वाली शक्तियों के अन्वेषण में ऋषि की मेधाग्नि एक विलक्षण वैश्विक देन मानी जाती है। यही कारण था कि तापस जीवन व्यतीत करने वाले ऋषि, मुनि, यति एवं साधकों की परम्परा में अग्नि के विविध नाम-रूप दृष्टिगत हुए।
प्राचीन भारतीय आर्ष-परम्परा की ही विलक्षण देन कही जायेगी कि वैश्विक स्तर पर अध्येता आज भी उस तात्त्विकता से स्वयं को जोड़कर जागतिक जीवन के लिए उपयोगी विषयों पर गम्भीर अनुसंधान कर रहे हैं। इस पुस्तक की विषयवस्तु में उसी चिन्तन के दर्शन होते हैं। इस पुस्तक के लेखक डॉ. सुनील कुमार ने 'प्राचीन भारतीय लोकजीवन में अग्नि' नामक अपनी शोधात्मक कृति में विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में उपासनीय अग्नि को प्रागैतिहासिक, आद्य ऐतिहासिक, वैदिक ऐतिहासिक के साथ-साथ प्राचीन भारतीय लोकजीवन में व्याप्त अग्नि तत्व का विविध रूपों में साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक तथ्यों के गहन विश्लेषण के आधार पर प्रस्तुत करने का स्तुत्य प्रयास किया है।
यद्यपि यह तथ्य प्रमाणित है कि विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में उपास्य देवतत्व के रूप में द्यौस्, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, उषा, वायु, जल, जल-देवता के साथ अग्नि की विद्यमानता रही है किन्तु यह स्मरणीय है कि ग्रीक, रोमन तथा लिथुआनियन एवं स्काइथियन धर्मो में अग्नि की एक देवी के रूप में धारणा प्राप्त होती है जबकि ईरानियन एवं भारतीय धार्मिक जीवन में उसकी कल्पना एक देवता के रूप में रही है। इन धारणाओं के अन्तर के पीछे यही विचार सर्वस्वीकृत है कि सम्भवतः आरम्भिक काल में केवल भौतिक तत्व के रूप में अग्नि की उपासना होती थी किन्तु वैदिक ऋषियों की दृष्टि उनके भौतिक रूप से उठकर अन्तरिक्ष के रूप में (विद्युत तथा सूर्य) तक भी पहुंची है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण विश्व के प्राचीनतम् आर्ष ग्रन्थ 'ऋग्वेद' में सर्वप्रथम अग्नि देवता की स्तुतियाँ हैं। इतना ही नही तो 'ऋग्वेद' के लगभग एक हजार सूक्तों में से अग्नि के लिए प्रायः 200 सूक्त कहे गये हैं। इस प्रकार 'ऋग्वेद' का लगभग पंचमांश उनके प्रति कहे गये सूक्तों से भरा पड़ा है।
वस्तुतः मानव सभ्यता के दीर्घकालिक इतिहास में अग्नि प्रथम, प्राचीन एवं वरेण्य रही है। इसलिए विज्ञान के आविष्कारों में अग्नि को सबसे बड़ा आविष्कार माना गया है। अग्नि सम्बंधी वैदिक ऋचाओं से यह प्रमाणित है कि सृष्टि के आरम्भ में सर्वप्रथम मनुष्य ने ही अग्निगर्भ पृथिवी से निरन्तर अग्नि का खनन, मंथन और दोहन किया इसलिए अग्निहोत्र का एकमात्र अधिकारी इस सृष्टि में मानव है, अन्य प्राणी बलिष्ठ, प्रतिभा सम्पन्न, रूप-गुण से पूर्ण होते हुए भी अग्नि खनन के अयोग्य तथा अनाधिकारी हैं। 'वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा' नामक अपनी पुस्तक में डॉ. सत्यप्रकाश ने यह स्पष्ट अभिमत दिया है कि 'इस वसुन्धरा का यह स्थल धन्य है, जहाँ अंगिरस ने प्रथम बार इस भौतिक अग्नि के दर्शन किए। हमारी यह भावना है कि यह आविष्कार भारत की भूमि में ही कही पर हुआ होगा, अथवा जिस किसी ने जहाँ कही भी इसका प्रथम साक्षात् किया हो, वह हमारा प्रथम पूर्व-पुरुष था और हम उसके उत्तराधिकारी हैं। जब कभी भी सोमयाग में अग्नि का मन्थन होता है, इस पूर्व पुरुष अथर्वा का ऋक् के मन्त्र से स्मरण किया जाता है'- 'त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत' (ऋग्वेद 6.16.13)।
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