असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
- बृहदारण्यकोपनिषद् (1/3/28) इस मन्त्र में ईश्वर से यह प्रार्थना की गई है कि मुझे असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमृतत्व की ओर ले चलें। भारतीय जीवन-पद्धति में अमृतत्व का अनुसन्धान मानव-जीवन का चरम लक्ष्य रहा है। इस मृत्यु-लोक में जन्म लेनेवाला प्रत्येक मनुष्य अनादिकाल से इसी चिर अभिलाषा की पूर्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहा है। सुर हों या असुर सबको अमृत की चाह है। सब यह भी जानते हैं कि अमृत के अनुसन्धान के क्रम में विष भी उत्पन्न होता है। लेकिन विडम्बना यह है कि लोकहित में उस विष का पान करनेवाला कोई शिव आज नजर नहीं आता।
प्रत्येक बारह वर्ष पर लगनेवाले कुम्भ या प्रत्येक छह वर्ष पर लगने वाले अर्धकुम्भ में एकत्र होने वाला अपार जनसमुदाय सम्भवतः अमृत से भरे कुम्भ की अपनी अव्यक्त अभिलाषा को लेकर ही वहाँ पहुँचता है।
पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार एक बार दुर्वासा मुनि के शाप से देवतागण शक्तिहीन हो गए। तब भगवान विष्णु ने अमृत प्राप्त करने के लिए देवताओं को समुद्र-मन्थन की सलाह दी। समुद्र-मन्थन हुआ और उससे 14 वस्तुओं की प्राप्ति हुई, जिनमें एक अमृत-कलश भी था। अमृत-कलश पाने के लिए देव और दानव भिड़ गए। उनका यह संघर्ष 12 दिनों तक चला। देवलोक का एक दिन पृथ्वीलोक के एक वर्ष के बराबर होता है। पृथ्वीलोक के हिसाब से यह युद्ध 12 वर्ष चला। संघर्ष के दौरान हुई छीना-झपटी में अमृत-कुम्भ प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में छलक गया। उन चारों स्थानों में अमृत की बूँदें नदियों के जल में गिरकर उनको अमृतमय बना गईं। इसी कारण इन्हीं स्थानों पर प्रत्येक बारह वर्ष पर कुम्भ मेला लगने लगा। इस पौराणिक मान्यता का सर्वाधिक प्रचार शंकराचार्य (8वीं शताब्दी ई.) ने किया था।
लेकिन आदि शंकराचार्य के पहले भी प्रयाग में कुम्भ का आयोजन होता रहा है और इसका सबसे पुराना ऐतिहासिक वर्णन हवेनत्सांग (7वीं शताब्दी ई.) ने किया था। उस समय प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर दुनिया भर से ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा, सामन्त, कलाविद् और धर्मप्राण लोग लाखों की संख्या में एकत्र हुए थे। उस समय प्रयागराज में 75 दिनों तक 'महामोक्ष परिषद्' का आयोजन हुआ था। सम्राट हर्षवर्धन ने अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन करते हुए पाँच वर्ष का संचित कोष और अपनी निजी सम्पूर्ण सम्पदा प्रयागराज के उस मेले में दान कर दी थी। इससे कुम्भ परम्परा का स्पष्ट संकेत मिलता है।
परम्परागत रूप से हरिद्वार में गंगा, प्रयागराज में गंगा-यमुना के संगम, नासिक में गोदावरी और उज्जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे कुम्भपर्व का आयोजन होता है। वैसे तो ये चारों भारत के प्रमुख तीर्थ हैं, परन्तु प्रयागराज तीर्थों का राजा है। यह भारत का सर्वप्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र होने के साथ ही भारतीय सात्त्विकता का सर्वोत्तम प्रतीक भी है। यह हिन्दू आस्था का एक महान केन्द्र तो है ही, यह हमारे देश की धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना का केन्द्र-बिन्दु भी है। तीर्थराज प्रयाग के माहात्म्य का विस्तृत वर्णन मत्स्य, पद्म और कूर्म पुराण के कई अध्यायों में मिलता है। इन पुराणों में थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ उन्हीं बातों को दुहराया गया है। आस्थावान हिन्दू ऐसा मानते हैं कि प्रयागराज की महिमा का बखान कर पाना कोई सहज कार्य नहीं है। सन्तकवि तुलसीदास कहते हैं- को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ ॥
सकल कामप्रद तीरथराऊ। बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ ॥
जहाँ कहीं भी देवनदी के एक से अधिक प्रवाह एक साथ मिलकर बहने लगते हैं, तो धाराओं का वह मिलन-स्थान 'प्रयाग' बन जाता है। हिमालय क्षेत्र में पंचप्रयाग तीर्थ ऐसे ही बने हैं। परन्तु इलाहाबाद में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती की तीन धाराओं के मेल से वह मिलन-स्थान तीर्थोत्तम और 'प्रयागराज' बन गया है। यहाँ प्रतिवर्ष माघ स्नान के लिए, प्रति छह वर्ष पर अर्धकुम्भ स्नान के लिए, प्रति बारह वर्ष पर कुम्भ स्नान के लिए और प्रति 144 वर्ष पर महाकुम्भ स्नान के लिए असंख्य लोग आते हैं। भाषा, जाति, प्रान्त आदि के भेदों को भुला कर एक जन-समुद्र उमड़ आता है। कुम्भ मेला व्यक्तियों का ही संगम नहीं कराता, बल्कि वह भारतीय भाषाओं और लोक-संस्कृतियों का संगम भी बन जाता है।
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