वे सब उसी तरह आए जैसे चींटियों का झुंड शहद पर लपकता है। सैकड़ों की संख्या में योद्धा। इला-वृत्त नामक स्थान का प्रत्येक स्वाभिमानी क्षत्रिय, तुमुल शंखनाद के बीच, जगमग करते कवच व शक्तिशाली धनुष धारण किए, अनुचरों से घिरा, हाथियों व रथों पर सवार हो कर अथवा पैदल ही गंगा, यमुना व सरस्वती नदियों के किनारे-किनारे, वर्ष की अंधकारमयी रात्रियों व सबसे ठंडे दिनों में, कुरुक्षेत्र के धुंध से घिरे मैदानी इलाके की ओर बढ़ता जा रहा था।
वे सभी आए, वृद्ध व युवक, रोमांचप्रिय व अनुभवहीन; वे सभी कौरवों, पांडवों या फिर धर्म के पक्ष में लड़ने जा रहे थे। कुछ पुराने प्रतिशोध लेने आए। कुछ को नियति खींच लाई। कुछ वैवाहिक संबंधों के अधीन थे तो कुछ को लगा कि कुरुक्षेत्र में हुई मृत्यु से उन्हें निश्चित रूप से इंद्र के स्वर्ग में स्थान मिलेगा। अनेक योद्धा तो कीर्ति के लोभ में खिंचे चले आए, यह कोई साधारण युद्ध नहीं था। यह आर्य भूमि में संपत्ति व सिद्धांतों के लिए लड़ा जाने वाला सबसे बड़ा व निर्णायक महासमर होने वाला था। अठारह सेनाओं के बीच भीषण महासंग्राम। अंतिम योद्धा के गिरने के बाद भी, युगों तक चारण उनकी यशोगाथा का गान करेंगे। यह युद्ध साधारण योद्धाओं को नायक बनाने की क्षमता रखता था।
शीघ्र ही, क्षितिज पर सैकड़ों नहीं, हज़ारों की संख्या में प्रत्येक राज्य व राजा की पताकाएँ फहराती दिखाई देने लगीं। परंतु खेद से कहना पड़ता है, वल्लभी की पताका इनके बीच कहीं नहीं थी।
वल्लभी नरेश युवनाश्व भी युद्ध में जाना चाहता था। “मैं कीर्ति के लिए नहीं, किसी प्रतिशोध के लिए नहीं, किसी कर्तव्य भाव की पूर्ति के लिए नहीं, परंतु भावी पीढ़ियों के लिए धर्म को परिभाषित करने के लिए जाना चाहता हूँ"। उसने क्षत्रिय वृद्धजनों से कहा, "हम लंबे समय से चर्चा करते आए हैं कि राजा किसे होना चाहिए? कौरवों या पांडवों को? नेत्रहीन बड़े भाई के पुत्रों अधवा नपुंसक छोटे भाई के पुत्रों को? वे लोग जो अपने वचन को पूर्ण नहीं कर सके अथवा वे जो जुए में अपना राज्य हार बैठे? वे मनुष्य जिनके राजपद केवल उत्तराधिकार हैं या वे जिनके लिए राजपद विधि व व्यवस्था का प्रश्न है? जो भी वाणी से सहमति नहीं पा सका, अब वह रक्त के माध्यम से स्थापित होगा। सभी राजाओं को इसमें भाग लेना चाहिए। मुझे भी इसके लिए जाना चाहिए"।
युवनाश्व ने अपनी सेना तैयार कर ली, अपने तूणीर बाणों से भर लिए, अपने रथ को तैयार करवाकर पताका फहरवा दी। तब वह अपनी माता, आदरणीय शीलावती के पास उनकी अनुमति लेने गया। सोलह वर्ष की आयु से वैधव्य झेल रही, शीलावती लगभग तीस वर्षों से वल्लभी की राज-प्रतिनिधि तथा अपने पुत्र के राज्य की संरक्षिका की भूमिका निभाती आ रही थी।
युवनाश्व का हृदय उत्साह से छलका जा रहा था, उसने माँ के चरणों में मस्तक रखते हुए कहा, "कृष्ण के प्रयत्नों के बावजूद चचेरे भाइयों के बीच शांति स्थापना नहीं हो सकी। कुरु वंश का विभाजन पूर्ण हो चुका है। पाँच पांडवों ने सौ कौरवों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया है। आठों दिशाओं में युद्ध का शंखनाद गूँज रहा है। यह प्रत्येक क्षत्रिय के लिए शस्त्र उठाने का आह्वान है। अब यह केवल पारिवारिक संघर्ष नहीं रहा; जैसा कि हम जानते हैं यह युद्ध सभ्यता के लिए लड़ा जा रहा है। मुझे अनुमति प्रदान करें कि मैं इसमें भाग लेने जा सकूँ"।
अकस्मात, शीलावती का स्नेहमयी हाथ, पुत्र के सिर पर ठिठक गया। उसके सुर में असहमति झलक उठी, "जाना चाहते हो तो अवश्य जाओ। भले काम वास्तव में भले ही होते हैं परंतु यह उनकी कथा है। मुझे केवल तुम्हारी कथा में रुचि है। मेरे पुत्र! यदि तुमने कुरुक्षेत्र के युद्ध में, धर्म के लिए लड़ते हुए अपने प्राण त्यागे तो तुम निश्चित रूप से कीर्तिमंडित हो कर, देवलोक में जाओगे। तुम वैतरणी के दूसरी ओर, अपने पिता, अपने पितामह, अपने प्रपितामह तथा उनके भी पिता व नामविहीन पितरों को खड़ा पाओगे।
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