प्रवचनों की सुदीर्घ अवधि में श्रीभरत चरित्र को केन्द्र बनाकर कितने प्रवचन मेरे माध्यम से हुए हैं उसकी गणना मैंने नहीं की है। सर्वदा श्रोताओं ने रस विभोर होकर उसका आनन्द लिया है; किन्तु मैंने श्रोताओं से भी अधिक सुखानुभूति की है ऐसा कहूँ तो इसे आत्म-स्तुति के रूप में देखना उपयुक्त नहीं होगा। इस अन्तर का कारण यही है कि मैंने भरत को 'कहा' ही नहीं 'सुना' भी है। और आश्चर्यचकित होता रहा हूँ। प्रभु ने प्रत्येक बार मुझे नये-नये भरत का दर्शन कराया है। और तब मन में यही पंक्ति गुनगुना लेता हूँ।
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