आयुर्वेद-जगत् में अनेक वर्षों से उपयुक्त ग्रन्थों विधोपकर पाठ्य-पुस्तकों का अभाव अनुभव किया जा रहा है। प्राचीन संहिताएँ तथा उनकी व्याख्याएँ और टीकाएँ भी अप्राप्य होती जा रही है। साथ ही आयुर्वेदिक एवं यूनानी साहित्य को समृद्ध करने के लिए प्राचीन उपयोगी पाण्डुलिपियों को भी प्रकाया में लाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। आयुर्वेद एवं यूनानी की उपयुक्त पाठ्य-पुस्तकों का अभाव विशेषरूप से तब से लटकने लगा जब से कि विभिन्न प्रदेशों में आयुर्वेद और यूनानी के महाविद्यालय स्थापित किये गये और उनमें विषयानुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण किया गया। प्राचीन उपलब्ध संहितानों में विभिन्न विषयों की सामग्री यत्र-तत्र बिखरी हुई है और उसको संकलित कर उसके आधार पर उपयुक्त पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण को अत्यन्त आवश्यकता है। आयुर्वेद एवं यूनानी के विकास के लिए उपर्युक्त कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
अतः उत्तर प्रदेशीय आयुर्वेदिक एवं यूनानी पुनः संगठन समिति (1947) की संस्तुति को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेशीय शासन ने वर्ष 1949-1950 के वित्तीय वर्ष में शासनादेश संख्या 5718 बी० बी-2 बार-सो । 1949 दिनांक 28-2-1950 के द्वारा आयुर्वेदिक एवं तिब्बी अकादमी, उत्तर प्रदेश की स्थापना निम्न उद्देश्यों की वृति के लिए की-
1- प्राचीन आयुर्वेदिक एवं यूनानी साहित्य का संकलन, सम्पादन तथा प्रकाशन ।
2- प्राचीन आयुर्वेदिक तथा यूनानी पुस्तकों तथा अन्य उपादेव चिकित्सा सम्बन्धी साहित्य का विदेशी भाषाजों से अनुवाद कराना और उसे प्रकाशित करना ।
3-आयुर्वेद एवं यूनानी तिब के विद्यावियों के लिए उपयुक्त स्तर को पाठ्य-पुस्तकों का हिन्दी में निर्माण ।
यह भी निश्चय किया गया कि अकादमी एक परामर्शदात्री समिति के रूप में कार्य करेगी तथा उपयुक्त बिद्वानों को पाठ्य-पुस्तकों के लेखन तथा प्राचीन एवं आधुनिक पुस्तकों के हिन्दी में अनुवाद करने के लिए आमंत्रित करेगी और उपयुक्त अधिकारी विद्वानों द्वारा उनका परीक्षण कराकर यदि वे निर्धारित स्तर की हुई तो शासन की स्वीकृति लेकर लेखकों और सम्बम्बित विद्वानों को उपयुक्त पुरस्कार भी प्रदान करेगी। अकादमी का एक पृथक् पुस्तकालय भी स्थापित करने को स्वीकृति शासन द्वारा दी गयी ।
किन्तु उपर्युक्त कार्य के लिए प्रारम्भ में जो कर्मबारि-वर्ग तथा अनुदान शासन द्वारा स्वीकृत किया गया वह इतना पर्याप्त नहीं था कि उपयुक्त पाठ्य-पुस्तकों को लिखाकर या अनुवाद कराकर इनके प्रकाशन का कार्य भी अकादमी आरम्भ कर सके। इसलिए प्रारम्भ में कई वर्षों तक अकादमी केवल प्रत्येक वर्ष प्रकाशित पुस्तकों पर ही लेखकों को प्रोत्साहनार्थ कुछ धन राशि पुरस्कार के रूप में प्रदान करती रही।
वर्ष 1968-69 में शासन ने शासनादेश संख्या 5149715-379166 दिनांक 7-3-1968 के अन्तर्गत उपयुक्त पुस्तकों के प्रणयन और उनके प्रकाशन के लिए अतिरिक्त अनुदान का प्राविधान किया तथा एक सम्पादक, एक अनु-सन्धान सहायक तथा एक पुस्तकाध्यक्ष के पदों का भी सूजन किया। अतः अकादमी ने अब अधिकारी विद्वानों से उपयुक्त ग्रन्य लिखाकर तथा बनुवाद कराकर उन्हें प्रकाशित कराने का कार्य भी अपने हाथ में लिया है जिसके फलस्वरूप प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशित की जा रही है।
प्रस्तुत ग्रन्थ अकादमी की प्रकाशन-माला का तृतीय पुष्प है। इसके पूर्व आचार्य निरंजन देव, आयुर्वेदालंकार द्वारा लिखित "प्राकृत दोष विज्ञान", एवं हकीम वैद्यराज श्री दलजीत सिह द्वारा लिखित "यूनानी द्रव्यगुणादर्श" प्रथम खण्ड अकादमी द्वारा प्रकाशित हो चुकी है और विद्वानों द्वारा उक्त ग्रन्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है।
आयुर्वेद के आठ अंगों में शल्य शास्त्र का अत्यन्त महत्त्व है। औषधियों द्वारा जिन रोगों की चिकित्सा सम्भव नहीं होती है उनकी शल्य क्रिया द्वारा सफलतापूर्वक चिकित्सा की जाती है। प्राचीन संहिता ग्रन्थों में शल्यतन्त्र में निष्णात अनेक विद्वानों एवं उनके ग्रन्थों के नाम मिलते हैं परन्तु वर्तमान काल में केवल सुश्रुत संहिता हो इस विषय का उपलब्ध प्रामाणिक ग्रन्थ है। वैदिक साहित्य एवं संहिताओं में अनेक दुष्कर शल्यकमों का उल्लेख मिलता है जिसमें अंग प्रत्यारोषण (Organ transplantation), मस्तिष्क स्थित अर्बुदों के शल्यकर्म (Operations of brain tumers), आन्तरिक विद्रधियाँ (Inflammation and pus formation in internal organs) तथा विभित्र अस्थिमग्न (Fractures) आदि प्रमुख है। इसके साथ ही महर्षि सुश्रुत ने नासा संधान विधि, कर्ण संधान विधि आदि द्वारा प्लास्टिक सर्जरी सम्बन्धी विभिन्न शस्त्रकमों का भी विशद विवेचन किया है, जिससे बाज वे प्लास्टिक सर्जरी के आद्य प्रवर्तक स्वीकार किये जाते हैं। इससे ज्ञात होता है कि भारतीय चिकित्सा शास्त्र में एवं प्राचीन भारत में शल्यशास्त्र और पाल्य क्रियाएँ काफी विकसित थी। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में युद्ध में भारतीय शल्य-चिकित्सकों द्वारा प्रयुक्त विभिन्न शल्यकों की सिकन्दर द्वारा भी प्रशंसा की गयी थी। काल की गति के साथ अनेक कारणों से भारतीय शल्यशास्त्र का विकास अवरुद्ध हो गया ।
शल्य शास्त्र पर अनेक भारतीय तथा विदेशी विद्वानों ने उच्चस्तर के ग्रन्य लिखे हैं किन्तु हिन्दी भाषा में इस प्रकार के ग्रन्थों का आज भी अभाव है। डा० के० एन० उडुप, सर्जरी के प्रोफेसर होने के साथ ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के निदेशक भी है। वे प्राचीन एवं आधुनिक दोनों शल्यशास्त्र के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् है। आपकी शल्यक्रिया की प्रतिष्ठा के फलस्वरूप भारत सरकार ने आपको 'पद्मश्री' उपाधि से भी विभूषित किया है। डा० के० एन० उग्रुप तथा डा० के० पी० शुक्ल ने प्रस्तुत ग्रन्थ "आधुनिक शल्य-चिकित्सा के सिद्धान्त" में अपनी गवेषणा, कार्य-कुशलता एवं अनुभव के आधार पर शल्य चिकित्सा में हो रहे नवीन वैज्ञानिक अन्वेषणों का शल्य-चिकित्सा के सिद्धांतों के साथ समन्वय करने का सफल प्रयत्न किया है।
ग्रन्य में वात्य-कर्म के मौलिक सिद्धान्तों एवं उसके क्रियात्मक कार्य का गम्भीर विवेचन किया गया है। साय ही शल्यक्रिया के पूर्वकर्म, पश्चात् कर्म, जन्मकालीन शल्यविकृति, आघातजन्य शल्यविकृति, संक्रमण, कैन्सर आदि विषयों पर भी गवेषणात्मक विचारों को सर्वथा नवीन रूप में प्रस्तुत किया गया है। शल्यक्रिया से सम्बन्धित प्रयोगशाला सम्बन्धी बम्बेपणों का समावेश कर इस ग्रन्थ को और भी उपयोगी बना दिया गया है। शल्य चिकित्सा के नवीन अनुसंधानों में अंग प्रत्यारोपण (Organ transplantation) को विविध विधियों एवं रेडियोएक्टिव आइ-सोटोप का शल्य-चिकित्सा में उपयोग सम्बन्धी वर्णन कर शल्य चिकित्सकों को नवीन दिशा का दिग्दर्शन कराया है। प्राविधिक शल्य पर विस्तृत विवेचना न कर वैज्ञानिक विधियों, अन्वेषणों एवं नवीन प्राविधानों का वर्णन प्रस्तुत ग्रन्य में किया गया है। शल्य चिकित्सा में ऐसे उत्तम अनुसंधानात्मक पुस्तक प्रणयन के लिए डा० के० एन० उहुप तथा डा० के० पी० शुक्ल विशेषरूप से धन्यवाद के पात्र है। मुझे आशा है कि प्रस्तुत पुस्तक पाल्य चिकित्सा के विद्यार्थियों, अध्यापकों, अन्वेषकों और चिकित्सकों के लिए अत्यन्त उपादेय सिद्ध होगी ।
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