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नाट्य-प्रयोग में संगीत का उद्देश्य एवं सिद्धांत- Purpose and Principle of Music in Drama

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Specifications
Publisher: Sanjay Prakashan
Author Kuldeep Raina Sudeshi
Language: Hindi
Pages: 124
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 280 gm
Edition: 2025
ISBN: 9789349010505
HBW513
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Book Description
पुस्तक परिचय
मनोगत भावों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त साधन नाट्य है। नाट्य का मुख्य उद्देश्य जनमानस को आत्मबोध करा उन्हें ज्ञान का संदेश देना होता है। इस उद्देश्य पूर्ति में संगीत की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती थी । संगीत दर्शकों को बांधने में और उनमें रसानुभूति कराने में नाट्य की अभिव्यक्ति में बल देता है। यह पुस्तक नाट्य प्रयोग में संगीत के इस उद्देश्य तथा उसके महत्त्व को दर्शाती है तथा नाट्य प्रयोग में संगीत के सिद्धांत और उसमें रस और भाव पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी व्याख्या करती है। इसके अतिरिक्त आधुनिक समय में लोक नाट्य और नाटक में संगीत की स्थिति को भी दर्शाती है। यह पुस्तक नाट्य के साधकों को नाट्य प्रयोग में संगीत के उद्देश्य, सिद्धांतों और महत्त्व को समझने में उपयोगी हो सकती है तथा नाट्य प्रयोग के समय संगीत की योजना करने में नाट्य शास्त्र में प्रतिपादित सभी सिद्धांतों तथा नियमों का पालन करते हुए नाट्य की सिद्धि एवं सफलता में सहायक हो सकती है।

लेखक परिचय
पाणी: डॉ. प्रिंसी कोल माता-पिता श्रीमती किशनी श्री प्यारे लाल स्वदेशी जन्म अन्नतनाग, कश्मीर पता: 118-जी, दुर्गा नगर, सेक्टर-1. जम्मू 180013 शिक्षा: एम.ए., पी-एच. डी. (पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़) इमेल: drkuldeepsudeshi@gmail.com डॉ. कुलदीप रैना बचपन से ही अभिनेता के रूप में रंगमंग के क्षेत्र से जुड़े हैं और पिछले 45 वर्षों से टेलीविजन, रेडियो और रंगमंच के लिए कार्य कर रहे हैं। एक अभिनेता के साथ-साथ संगीत निर्देशक भी हैं। तथा कई संगीत एल्वमों, मंचीय नाटकों और टेलीविजन धारावाहिकों के लिए संगीत निर्देशन भी किया है। इसके अतिरिक्त जम्मू, कश्मीर, लद्दाख और हिमाचल प्रदेश के संगीत पर विशेषज्ञता के साथ संगीत विषय में पी-एच.डी. शोध पर्यवेक्षण किया व् अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रमुख समीक्षित शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित किए हैं। वर्तमान में जम्मू कश्मीर उच्च शिक्षा विभाग में संगीत विषय के एसोसिएट प्रोफेसर के नाते कार्यरत है। सदस्यता : वर्तमान में संस्कार भारती जम्मू कश्मीर लदाख प्रान्त के अध्यक्ष का दायित्व । उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के गवर्नर बोर्ड के सदस्य। सी.सी. आर. टी., संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा युवा कलाकारों को छात्रवृत्ति प्रदान करने हेतु रंगमंच विशेषज्ञ सदस्य। एस.सी. ओ. पी. ई. डोगरी के मध्यम से (विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार लोक प्रियकरण एवं उसका विस्तार) की कोर समिति के सदस्य, जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली की अनेक पहलों का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। कल्चरल कॉर्डिनेटर, जम्मू क्लस्टर विश्वविद्यालय।

पुरोवाक्
भारतीय नाट्य परंपरा अपने मूल स्वरूप में संगीत नृत्य और नाट्य का त्रिवेणी संगम रही है। भरतमुनि द्वारा प्रेणीत नाटशास्त्र के प्रारंभिक श्लोकों में कहा गया है कि नाट्य वेद को पंचम वेव के रूप में सृजित किया गया जिससे सभी वर्षों एवं जातियों को सुलभ रूप से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के ज्ञान की प्राप्ति हो सके। कहने का अभिप्राय ये है कि नाट्यवेद की रचना ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस ग्रहण कर चारों वेदों के सार से की गई, जिससे जन मानस को उपदेश, प्रेरणा और आनंद प्राप्त हो सके। वैदिक अनुष्ठानों में गान, नृत्य और अभिनय की जो सांकेतित उपस्थिति थी, वही आगे चलकर नाट्य के रूप में विकसित हुई। नाट्य का मूल गीत है 'नाट्यस्यमूलम् गीतम' अर्थात गीत नाट्य का आधार है। इसीलिए भारत ने निर्देश दिया कि नाटक या नाट्य प्रेयोग करने वालों को सबसे पहले गीत में अभ्यास करना चाहिए।

प्राक्कथन
संगीत-भारतीय नाट्य परंपरा का एक महत्त्वपूर्ण अंग रहा है। भारतीय रंगमंच हो, टेलीविजन का कोई धारावाहिक हो, या सिनेमा हो, बिना संगीत के कल्पना करना संभव नहीं है। प्राचीन काल से ही संगीत-भारतीय नाट्य परंपरा का प्रमुख अंग रहा है। यही कारण है कि पंचम वेद माने जाने वाले नाट्यशास्त्र में भी छः अध्यायों में संगीत के सिद्धान्तों की भी विशद व्याख्या की गई है। नाट्य में किस प्रकार के गीत का प्रयोग किस स्थिति में करना चाहिए, किस स्वर युक्त जातियों का गान किस भाव से करना चाहिए जो कि रस की निष्पत्ति करें, किन वाद्यों का एकल तथा सामूहिक वादन करना चाहिए और उनके वादन के अवसर विशेष क्या है आदि का वर्णन भरत के संगीत के सैद्धांतिक ज्ञान को ही नहीं अपितु उसके व्यवहारिक ज्ञान का वर्णन करता है। इसका व्यवहार हमें तत्कालीन संस्कृत नाटकों में दिखाई पड़ता है। भारतीय नाट्यकला पर विचार करते समय नाट्यशास्त्र सदा सन्मुख आ जाता है, क्योंकि यह महान् ग्रन्थ नाट्यकला के अतिरिक्त उसके आनुषंगिक विषयों, जैसे काव्य, संगीत, नृत्य, शिल्प तथा अन्य ललित कलाओं का भी कोष है। यह ग्रन्थ भारत की रंगमंचीय कला का शताब्दियों से उपजीव्य ग्रन्थ हैं भारतीय नाट्यकला के सिद्धान्तों की नाट्यशास्त्र को छोड़कर अन्य इतनी विस्तृत कल्पना करना संभव नहीं है। अतः प्राचीन भरत में व्यवहृत नाट्यकला के स्वरूप, तत्त्व तथा प्रकृति को पूर्णता हृदयगम्य करने के लिए एकमात्र नाट्शास्त्र ही आलम्बन है। इस ग्रन्थ में नाट्य तथा रंग से सम्बन्धित काव्य, शिल्प, संगीत, नृत्य आदि ललित कलाओं का विस्तृत विवरण दिया गया है |

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