"मंच पर खड़ा वह कोई अलौकिक व्यक्ति लग रहा था, जिसका व्यक्तित्व किसी विचारक, कलंदर और कवि के व्यक्तित्व का समीकरण लग रहा था। वह अपनी कविता में भारत के विभिन्न प्रदेशों की चर्चा इतनी सहजता से कर रहा था कि श्रोता अपने आपको उन प्रदेशों मे साँस लेते महसूस कर रहे थे। एक के बाद एक प्रदेश की जनता अपनी विशिष्ट संस्कृति की पृष्ठभूमि में, विशिष्ट वस्त्र धारण किए और विशिष्ट भाषा बोलती धीरे-धीरे उनकी आँखों के सामने उभरती और फिर क्षितिज के कोनों में गुम हो जाती। यह सफल चित्रण सत्यार्थी की वर्षों की साधना और भारत-भ्रमण का फल था। मुझे लगा कि भारत का कोई कवि, चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, भारत की आत्मा का चित्र प्रस्तुत करने में सत्यार्थी की बराबरी नहीं कर सकता।
बरसों पहले प्रीतनगर के वार्षिक सम्मेलन में सत्यार्थी जी ने 'हिंदुस्तान' शीर्षक कविता सुनाई थी। उस सम्मेलन में मौजूद साहिर लुधियानवी ने मंच पर कविता पढ़ रहे देवेंद्र सत्यार्थी का यह अनोखा शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, जिसे पढ़कर समझ में आता है कि उनकी कविताओं में कैसा खुलापन और जीवन का स्वच्छंद प्रवाह था, जो उन्हें आम जन से सीधे जोड़ता था और उनकी कविताओं की पुकार हवा में गूँज बनकर समा जाती थी।
यह वह समय था, जब अपनी लोकयात्राओं के बीच-बीच में तनिक विराम लेकर वे कविताएँ और कहानियाँ भी लिखने लगे थे और अपनी अनूठी सृजन-शैली और खुली अभिव्यक्ति के कारण वे एकाएक प्रसिद्धि के शिखर पर जा पहुँचे थे। खुद सत्यार्थी जी ने उन्मुक्त पंखों के साथ उड़ानें भरती अपनी काव्य-यात्रा के बारे में बहुत विस्तार से लिखा है, जिसने उनके भीतर एक नशा-सा भर दिया था
"कविता और कहानी की ओर मैं एक साथ आकृष्ट हुआ, वह भी सन् 1940 में। आरंभ कविता से ही हुआ और वह भी पंजाबी में। बस यों ही गुनगुनाकर कुछ लिख डाला था। वह स्वयं मेरे लिए भी कुछ आश्चर्य का विषय नहीं था, पर मन पर एक नशा-सा छा गया। जब यह कविता एक प्रसिद्ध पंजाबी मासिक में प्रकाशित हुई तो एक आलोचक ने तो यहाँ तक कहा कि इसमें ध्वनि-संगीत का अछूता प्रयोग किया गया है। ... मैंने सोचा, क्यों न कभी-कभी हिंदी माध्यम में भी लेखनी आजमाई जाए। 'बंदनवार' की 'नर्तकी' शीषक कविता इस इस प्रयास का सर्वप्रथम परिणाम है।... सौभाग्यवश, कुछ दिनों बाद दिल्ली में श्री सुमित्रानंदन पंत से भेंट हुई। उनके सम्मुख भी मैंने बड़ी सरलता से कविता सुना डाली तो उनके मुख से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े, "नर्तकी कविता नहीं एक मूर्ति है, एक पूरी चट्टान को काटकर बनाई गई मूर्ति, कहीं कोई जोड़ तो है ही नहीं...!
कविता-संकलन 'बंदनवार' की भूमिका के रूप में लिखी गई ये पंक्तियाँ कविता के लिए सत्यार्थी जी की दीवानगी की एक झलक पेश करती हैं। यों तो उन्होंने साहित्य की लगभग हर विधा में जमकर लिखा है और एक से एक स्मरणीय कृतियाँ दी हैं। पर सच तो यह है कि वे चाहे लोक साहित्य पर लेख लिखें या फिर कहानी, उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र और यात्रा-वृत्तांत, पर, हृदय से वे कवि हैं। वे पहले कवि हैं, फिर कुछ और। इसका इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि जो कुछ उन्होंने लिखा, उसमें उनका हृदय बोलता है और उनकी गद्य रचनाएँ तक कविताओं की तरह हृदय में गहरे धँसती हैं। इसलिए साहिर ने सत्यार्थी जी की कविताओं को हिंदी में अपने ढंग की सिरमौर कविताएँ कहा था।
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