भारतीय उपमहाद्वीप सांस्कृतिक रूप से जितनी विविधताओं वाला है उतना ही विविधतापूर्ण इसका इतिहास भी है। सभ्यता के आरंभिक काल से ही भारत अपनी विविधतापूर्ण बहुसंस्कृति, धर्म, दर्शन और इतिहास के लिए सुख्यात रहा है। एक ओर जहाँ यह प्रागैतिहासिक हड़प्पा के समय और बुद्ध काल से लेकर आज तक राष्ट्र-राज्य के उदय व विकास की धरती रही है, वहीं यह आदिवासियों के आदिम लोकतंत्र और प्राचीन गाँव-गणराज्य की निरंतर प्रवाहित समतामयी, सहजीवी, सहअस्तित्व वाले विकसित नागरिक समाजों की भी भूमि रही है। यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और बहुसंस्कृति ने इसे एक अनूठी पहचान दी है, जो आज भी पूरी दुनिया के लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास भी उतना ही विविधतापूर्ण है जितनी इसकी संस्कृति, और यह कई महत्वपूर्ण बदलावों और विकास का साक्षी रहा है।
भारतीय उपमहाद्वीप में राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का उदय और विकास भी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है। महाजनपदों से लेकर मौर्य और गुप्त साम्राज्य तक, इस क्षेत्र ने कई शक्तिशाली और समृद्ध साम्राज्यों को देखा है। मौर्य काल में चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक जैसे शासकों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना प्रभाव स्थापित किया। अशोक का धम्म प्रचार उनके शासन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी, जिसने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप, बल्कि एशिया के अन्य हिस्सों में भी बौद्ध धर्म का विस्तार किया।
गुप्त साम्राज्य को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है। इस काल में कला, साहित्य, विज्ञान और गणित के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। कालिदास, आर्यभट और वराहमिहिर जैसे विद्वानों ने इस काल को सांस्कृतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नत बनाया।
भारतीय उपमहाद्वीप की एक और प्राचीन, सशक्त और महत्वपूर्ण धारा यहाँ के आदिवासी समाज और उनके प्राचीन गाँव-गणराज्य की है। आदिवासी समाज में व्याप्त प्राचीन लोकतंत्र और समानता की अवधारणा देखने को मिलती है, जहाँ सामाजिक और आर्थिक तंत्र सहअस्तित्व और सहजीविता पर आधारित रहे हैं। गाँव-गणराज्य (मुंडा-मानकी, पड़हा, माँझी-परगाना, डोकलो) आदिवासियों की एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें नागरिकों की भागीदारी और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को सर्वोच्च महत्व था। यह व्यवस्था न केवल सामाजिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थी, बल्कि यह भारतीय आदिवासी समाज के समतामूलक और सहजीवी चरित्र को भी दर्शाती है। आदिवासी समाज के आदिम लोकतांत्रिक ढाँचे, गाँव-गणराज्य की अवधारणा और उनकी सहअस्तित्व की भावना हमेशा से भारतीय समाज के लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
आधुनिक भारत में, जहाँ एक ओर औपनिवेशिक शासन और उसके प्रभाव ने भारतीय समाज को चुनौती दी, वहीं स्वतंत्रता संग्राम ने इसे एक नई दिशा दी। तिलका माँझी, बुधु भगत, पोटो हो, तेलंगा खड़िया, सिदो कान्हू, फूलो-झानो, बिरसा मुंडा, जतरा टाना भगत, गोविंद गुरु, टंट्या मामा और महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह जैसे महान नेताओं के नेतृत्व में भारतीय उपमहाद्वीप ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अंततः स्वतंत्रता प्राप्त की।
1909 में जब भारत को गढ़ने की नई विधायी प्रक्रिया शुरू हुई तो अन्य देशवासियों के साथ-साथ आदिवासियों ने भी इसका स्वागत किया। नया देश कैसा होगा, लोगों के अधिकार क्या होंगे, क्या कर्तव्य होंगे, हमारा संविधान कैसा होगा,
इन सब विषयों में आदिवासियों ने शिद्दत के साथ शिरकत की और देश को लोकतांत्रिक बनाने में हर तरह से भागीदारी की। आदिवासियों के योगदान और सभी सामाजिक-राजनीतिक संगठनों व उनके दूरदर्शी नेतृत्व की बदौलत नई लोकतांत्रिक विधायी व्यवस्था कायम हुई और संविधान द्वारा दिये गए अधिकारों ने समाज को एक नई दिशा दी, जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज में आज भी विभिन्न भाषाएँ, धर्म, जातियाँ और संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व में हैं, जो इसे एक अद्वितीय समाज बनाती हैं।
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