| Specifications |
| Publisher: MEDHA BOOK, DELHI | |
| Author Vivek Gupta | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 110 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 8.5x5.5 inch | |
| Weight 240 gm | |
| Edition: 2006 | |
| ISBN: 8181661397 | |
| HBQ098 |
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सच, तलवार और बूढ़ा आदमी' विवेक गुप्ता का पहला कहानी संग्रह है, जिसमें पिछले लगभग बीस वर्षों में लिखी गई कहानियाँ हैं। इसलिए ये कहानियाँ अलग-अलग मूड्स और विषयों की विविध तरह की कहानियाँ हैं, जिनमें अपना अलग-अलग ट्रीटमेंट या गढंत है। इन कहानियों में बाजार है, निजीकरण व उसके प्रभाव हैं, औद्योगीकरण से उपजी विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ हैं तो सूखे की मार झेलता गाँव और गाँव के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समीकरणों का वर्णन भी है। एक किशोर के मनोविज्ञान की बारीकियाँ, सूक्ष्मताएँ और भावनाएँ हैं, तो समाज में तेजी से व्याप्त हो रही स्वार्थपरता, चालाकी और क्रूरता का चरमोत्कर्ष भी। ये कहानियाँ समाज और जीवन में उनके अनुभव, दृष्टि और आब्जर्वेशन की और अनुभवों से उत्पन्न भावनाओं की कहानियाँ हैं, जो समाज की जटिलताओं, व्याप्त विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को अपनी तरह से पकड़ती और व्याख्यायित करती हैं।
यहाँ यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अपने विषय-चयन, शैली, ट्रीटमेंट या अपने मुहावरे में कोई भी कहानी किसी दूसरी कहानी से संबद्ध या किसी का विस्तार नहीं जान पड़ती है। हरेक की अपनी अलग सत्ता है और प्रभाव भी। हर कहानी की भाषा भी अपनी है और जैसा कि आमतौर पर कहा जाता है कि रचना अपनी भाषा लेकर आती है तो इस संग्रह की कहानियाँ इस बात का उदाहरण भी बनती हैं। साथ ही इन्हें इस दृष्टि से भी देखा जा सकता है कि ये एक कवि की लिखी गई कहानियाँ भी हैं, और शायद इसीलिए भाषा को वापरने की एक कवि की छाप भी इनमें नजर आती है। हालाँकि, विवेक के लेखन की शुरुआत कहानियों से ही हुई, यह अलग बात है कि बाद में उनके कवि ने उनके ज्यादा समय और स्पेस को घेर लिया।
भाषा-शैली और ट्रीटमेंट से अलग इन कहानियों में एक तरह की समानता जरूरत परिलक्षित होती है और वह यह कि ये कहानियाँ भाव-प्रधान और संवेदनात्मक कहानियाँ हैं, ये विचार-प्रधान कहानियाँ नहीं हैं। अपनी तरह की भावुकता और मार्मिकता के साथ। इसलिए ये पाठक को सीधे संवेदनात्मक धरातल पर पहले आंदोलित करती प्रतीत होती हैं, जिससे कि इनके साथ पाठक का एक तादात्म्य स्थापित हो जाता है। विचार, या वैचारिक आग्रह इन कहानियों में कहीं है तो भीतरी तहों में, किन्हीं घटनाओं, परिदृश्यों या वातावरण के साथ गुंफित और गुँथा हुआ। इनमें पात्रों के बीच लंबे वैचारिक संवाद, या राजनीतिक बहसें नहीं हैं और न ही इस तरह के लेखकीय वक्तव्य ही। लेखक की अपनी उपस्थिति भी इन कहानियों में कम ही है। ये कहानियाँ, कहानी विचार के लिए है ऐसी प्रतीति नहीं करातीं बल्कि कहानी की उपस्थिति पहले है और विचार एक अंतर्निहित तत्व की तरह स्वाभाविक रूप से उसमें शामिल है, मिला-जुला है ऐसा आभास देती हैं। ये कहानियाँ पाठक के हृदय, संवेदना और भावनाओं में पहले शामिल होने की कोशिश करती हैं और फिर वहाँ से उसके विचारों में। यदि सचमुच इन कहानियों की ऐसी कोई कोशिश पाठक महसूस करता है तो उसी में इन कहानियों की सार्थकता होगी।
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