भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। पुरानी दुनिया की प्रायः सभी संस्कृतियाँ: मेसोपोटामिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन तथा प्राचीन मिस्त्र, ईरान, यूनान, रोम आदि; समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रहीं और काल के कराल गाल में समा गयीं। इनकी गौरव गाथा के कुछ ध्वंसावशेष ही आज शेष हैं। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। इसमें यहाँ का महान इतिहास एवं विलक्षण भूगोल छिपा हुआ है।
भारतीय संस्कृति के सहिष्णुता, उदारता एवं समन्वयवादी गुणों ने इसमें एक ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति को विकसित किया है, वस्तुतः जिस संस्कृति में लोकतंत्र एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हो, वहाँ ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है। हमारी संस्कृति में यहाँ के मूल निवासियों ने समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले शक, हूण, कुषाण आदि प्रजातियों के लोग भी घुल मिल कर अपनी पहिचान खो बैठे। इसके साथ ही हमने अपने अस्तित्व के मूल को भी सुरक्षित रखा है। 'कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश एम्पायर' के सम्पादक प्रो. एच. एन. डोडवैल (1932) के अनुसार 'भारतीय संस्कृति एक विशाल महासागर के समान है, जिसमें अनेक दिशाओं से विभिन्न जातियाँ और धर्म रूपी नदियाँ आकर विलीन होती हैं।'
भारतीय संस्कृति व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के जीवन का सिंचन कर उसे पल्लवित, पुष्पित व फलयुक्त बनाने वाली अमृत स्त्रोतस्विनी चिरप्रवाहिता सरिता है। यहाँ नदियों, वृक्षों एवं अन्य प्राकृतिक तत्त्वों की पूजा-अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की वैदिक धर्म में भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हजारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के संदेश हजारों सालों से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों एवं जीवन मूल्यों में एक ऐसी निरंतरता रही है कि आज भी अधिकांश भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं तथा उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
अनेकता में एकता ही भारतीय संस्कृति है और इस अनेकता के मूल में निश्चित रूप से भारत के विभिन्न भागों में स्थित जनजातियों हैं। ये जनजातियाँ विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए अपनी संस्कृति के माध्यम से भारतीय संस्कृति को एक विशिष्ट संस्कृति का रूप देने में योगदान करती हैं। देश की समग्र संस्कृति पर एक-दूसरे की छाप है। हम जानते हैं कि यहाँ विविधतायुक्त सांस्कृतिक विरासत वाली अनेक जनजातियों निवास करती रही हैं, अतः इनकी वैविध्यमय संस्कृति ने जिस भारतीय संस्कृति को उभरने में योगदान किया, वह भी विविधता को धारण करने वाली हुई।
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 10.42 करोड़ है, जो कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। मध्यप्रदेश में यह जनसंख्या 1.53 करोड़ है, जो यहाँ की कुल जनसंख्या का 21.1 प्रतिशत है। श्योपुर जिला में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 1,61,448 व्यक्ति हैं। इस प्रकार यहाँ की जनसंख्या में 23.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियाँ निवास करती है। प्रदेश में इस वर्ग के अन्तर्गत 43 जनजातियाँ तथा जिले में 21 जनजातियाँ आती है। अध्ययन क्षेत्र में सहरिया जनजाति की कुल जनसंख्या 1,44,600 व्यक्ति है। दूसरे शब्दों में यहाँ कुल जनजातियों की संख्या का 89.56 प्रतिशत भाग सहरियाओं का है। जिले में सहरियाओं के पश्चात् दूसरे क्रम पर भील-मिलाला (5.48) तथा तीसरे क्रम पर मांझी (1.19) आते हैं। अन्य जनजातियों (गोंड, बैगा, उरांव, कंवर, कोल आदि) का प्रतिशत एक से भी कम है। इस प्रकार सहरिया जनजाति यहाँ की एक प्रमुख जनजाति है।
हम जानते हैं कि सहरिया जनजाति सभ्यता के प्रभावों से दूर जंगलों की गोद में प्राचीन परम्पराओं से आबद्ध अपना जीवन यापन करती रही है। हमारी आधुनिक सभ्यता ने उनके शान्त एवं सरल जीवन में अनेक समस्याओं एवं विषमताओं को पैदा कर दिया है। राज्य शासन ने उनकी समस्याओं को हल करने तथा उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने हेतु अनेक कल्याणकारी योजनाएँ चालू की हैं। निश्चय ही इन योजनाओं से उनके जीवन में नया प्रकाश आया है. किन्तु आज भी ये अत्यन्त गरीब, शोषित, उपेक्षित, पिछड़े हुये एवं कुपोषण के शिकार हैं। अब समय आ गया है कि सरकार, राजनेता, प्रशासन एवं बुद्धिजीवी इन लोगों की समस्याओं को इनके सांस्कृतिक पहलुओं की दृष्टि से पुनः नये सिरे से रेखांकित कर अपनी विकास योजनाओं को संशोधित एवं परिवर्द्धित करें, ताकि अपनी संस्कृति की रक्षा करते हुए सहरिया जनजाति के लोग मुख्य धारा से जुड़ सकें।
इस पुस्तक के प्रस्तुतीकरण में जिन विद्वान लेखकों की कृतियों एवं लेखों की सहायता ली गई है, उन सभी के प्रति लेखक हृदय से आभारी है। यथास्थान उनका उल्लेख किया गया है, परन्तु यदि कहीं किसी का उल्लेख त्रुटिवश न हो पाया हो तो लेखक उसकी अभिस्वीकृति यहाँ करता है।
अन्त में पुस्तक के लगन एवं तत्परता से प्रकाशन के लिये लेखक जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी का हृदय से आभारी है। यद्यपि प्रूफ रीडिंग में पर्याप्त सावधानी रखी गई है, फिर भी कुछ अशुद्धियों का रह जाना स्वाभाविक है। लेखक सभी पाठकों का आभारी होगा जो पुस्तक की त्रुटियों एवं दोषों की ओर इंगित करेंगे। पुस्तक के सुधार सम्बन्धी समस्त सुझावों का सदैव स्वागत किया जायेगा। विश्वास है कि पुस्तक प्रशासकों, नियोजकों, शोधार्थियों, अध्यापकों एवं विद्यार्थियों को लाभान्वित करेगी।
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