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समग्र: गोंड जनजातीय सांस्कृतिक अध्ययन- Samagra: Gond Tribal Cultural Studies

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Specifications
Publisher: Adivasi Lok Kala Evam Boli Vikas Academy And Madhya Pradesh Cultural Institution
Author Niranjan Mahawar
Language: Hindi
Pages: 444
Cover: HARDCOVER
11x7.5 inch
Weight 1.26 kg
Edition: 2018
ISBN: 9789383899319
HBN265
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Book Description

प्रस्तावना

श्री निरंजन महावर से मेरी मैत्री सन् 1950 के दशक में हुई, जब हम दोनों सागर विश्वविद्यालय के छात्र थे। श्री महावर ने जब एम.ए. अर्थशास्त्र में प्रवेश लिया, तब में नतृत्त्व में एम.ए. फाइनल कर रहा था। महावर जी अपनी कविताओं के माध्यम से प्रसिद्धि पा चुके थे. मुझे भी कविता लिखने का शौक था। दोनों की ही हिन्दी में ठीक गति थी। परिचय होना स्वाभाविक था। मैंने सन 1960 में सागर छोड़ दिया और उसके साथ ही महावर जी से संपर्क भी टूट सा गया। वे अपने पैतृक व्यवसाय में जुट गये, में नौकरियों के चक्कर में स्थान बदलता रहा और कार्यकाल के अंतिम 24-25 वर्ष विदेशों में रहा। धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं के बंद हो जाने से मुझ अप्रवासी भारतीय के लिये हिन्दी की हलचलें हासिल करने का जैसे माध्यम ही छिन गया। मैं सेवा निवृत्ति पर 1997 में स्वदेश लौटा। लौटने के उपरान्त बिखरे हुए सम्बन्ध - सूत्रों को जोड़ने के विभिन्न प्रयासों के माध्यम से कई पुराने मित्रों से पुनः संपर्क स्थापित हुए। ऐसे ही संयोगवश एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में नृतत्ववेत्ता के रूप में बुलाए गए थे। आदिवासी कांस्य कला पर उनका विद्वतापूर्ण भाषण सभी ने सराहा। अर्थशास्त्र में दीक्षित, पैतृक व्यवसाय में आबद्ध महावर आदिवासी जीवन के शोध को समर्पित एक निष्ठावान व्यक्तित्व बन चुके थे। उनके भाषण के बाद मैंने उन्हें सागर-प्रवास का हवाला देकर बधाई दी। भला यह था कि वे भी हमारी मैत्री को भूले नहीं थे। महावर जी से मैत्री का पुनः आरंभ हम दोनों के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। नृतत्त्वच में दीक्षित होने के बावजूद भी मेरा कार्य-क्षेत्र थोडा विस्तृत हो गया और मेरी पहचान एक समाजवेत्ता के रूप में बन गई, उधर अर्थशास्त्र में दीक्षित महावर नृतत्त्व के निष्णात बन गए। परिचय की पुनर्स्थापना के पश्चात् अवसर पाकर मैं रायपुर गया। बहाना एक सेमिनार का था, पर मुख्य उद्देश्य महावर जी से मिलना था। महावर जी की आदिवासी शोध के प्रति निष्ठा और उनका समर्पण यदि किसी को देखना हो तो उसे महावर-निवास जाना होगा। अपने पैतृक व्यवसाय को तिलांजलि देकर महावर ने अपना संपूर्ण जीवन जनजातीय क्षेत्रों-विशेषकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य का दौरा करने और वहीं से सामधी और तथ्य संकलन करने में बिताया। उनका ड्राइंग रूम नृतत्व की अमूल्य निधि से खचाखच भरा है। इस देश में शायद ही अन्य कोई व्यक्ति होगा, जिसका निजी संग्रहालय इतना भरा-पूरा हो और सामग्री इतनी समृद्ध हो। महावर के घर जाकर यह भी पता लगा कि उन्होंने न केवल जनजातीय समाजों की लौकिक और भौतिक संस्कृति की प्रतिनिधि वस्तुओं का संग्रह किया है. वरन उनकी वाचिक परंपराओं को भी लिपिबद्ध किया है। ढेरों किस्से-कहानियाँ, गीत-कविताएँ, पराशक्ति-संबंधी मिथक और धारणाएँ और लोक-नाटकों का संकलन करना कोई साधारण और सरल उपक्रम नहीं है। इतना ही नहीं, इतनी ढेर सारी सामग्री के आधार पर उन्होने छः-सात ग्रंथों की पांडुलिपियाँ भी मुझे दिखाई। उनके जीवन भर की साधना की मात्र प्रशंसा करना ही पर्याप्त नहीं है।

मैंने उनसे इन पांडुलिपियों को शीघ्रातिशीघ्र प्रकाशित करने का परामर्श दिया और साथ ही यह आशा भी व्यक्त की कि उनके द्वारा एकत्र की गई जनजातीय संस्कृतियों की कला-कृतियों और दैनन्दिन उपयोग में आने वाली वस्तुओं को किसी संग्रहालय में समुचित स्थान मिलना चाहिये। मुझे यह जानकर निराशा हुई कि श्री महावर की उपस्थिति का अपने ही प्रदेश के विश्वविद्यालयों ने जहाँ नृतत्त्व की शिक्षा दी जाती है- यथोचित उपयोग नहीं किया। इस कर्मठ अध्येता का यदि अध्यापन में योगदान रहता तो नयी पीढ़ी के नृतत्त्व के छात्रों के प्रशिक्षण में गुणात्मक प्रभाव संपादित होता। श्री महावर ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उनके अंग्रेजी में लिखे पाँच ग्रंथों के प्रकाशन की समुचित व्यवस्था करवाने में उनकी सहायता करूँ। गुड़गाँव लौटने पर मैंने अभिनव प्रकाशन के श्री शक्ति मलिक से संपर्क किया और उनसे आग्रह किया कि वे समूची महावर ग्रंथावली के प्रकाशन का दायित्व लें। वे इसके लिये तैयार हो गए और पांडुलिपियाँ उनको भिजवा दी गई। श्री शक्ति मलिक का आग्रह था कि वे इस प्रोजेक्ट को तभी लेंगे, जब मैं प्रत्येक ग्रंथ का संपादन भार सम्हालूँ, वह भी सेवा भाव से न कि आर्थिक लाभ के लिये। मुझे यह शर्त स्वीकार थी। यह समग्र प्रकाशन एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। 19वीं और 20वीं शताब्दी में भारत के मध्य क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न जनजातीय समाजों के अध्ययन प्रकाशित हुए। ये अध्ययन विभिन्न नामों से जानी जाने वाली गोंड-प्रजाति के समूह की जनजातियों के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक जीवन और संस्कृतियों के नृतत्त्वीय वर्णन के रूप में प्रकाशित हुए और भारतीय नृत्तत्त्वशास्त्र की आधारशिला बने। एक 'अनन्त वर्तमान' की भाषा में वर्णित इन जनजातियों की जीवन-गाथा परम पठनीय व रोचक है। दुर्भाग्य यह है कि इस देश में ज्यों-ज्यों नृतत्त्वशास्त्र के अध्यापन केन्द्रों की अभिवृद्धि हो रही है, त्यों-त्यों नये स्नातकों की जनजातीय संस्कृतियों के अध्ययन में रुचि कम होती जा रही है। नृत्तत्त्ववेत्ता एक ओर तो जैविकीय व शारीरिक मानवशास्त्र में दीक्षित होकर नये क्षेत्रों में काम करने लगे हैं, तो दूसरी ओर सामाजिक नृतत्त्ववेत्ता गैर जनजातीय समाजों में जाकर अध्ययन करने लगे हैं। साथ ही अन्य विषयों के ज्ञाता -अर्थशास्त्री, राजनीतिशास्त्री, लोक प्रशासन के स्नातक, कला पारखी आदि अब जनजातीय समाजों की ओर उन्मुख होने लगे हैं। इससे नृतत्त्वशास्त्रियों की जनजातीय समाज की मोनोपॉली (एकाधिकार) समाप्त हुई है। पर जनजातीय समाजों के किए गए अध्ययनों के प्रकाश में आज के संदर्भ में देखना और भी आवश्यक हो गया है। इस दृष्टि से श्री महावर का यह प्रयास विशेष महत्त्व का है। श्री महावर ने इस ग्रंथ में किसी जन-जाति विशेष के वर्तमान का वर्णन प्रस्तुत नहीं किया है। गोंडवाना कहा जाने वाला भारत के मध्य का क्षेत्र मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा तक फैला है। इस विशाल क्षेत्र में कई जनजातियों वास करती हैं. जो मूल रूप से द्रविडभाषी गोंड पूर्वजों की ही भाषाएँ हैं। वर्तमान में एक करोड़ से भी अधिक जनसंख्या वाले गाँड आज एक जनजाति नहीं गिने जाते। इनके विभिन्न अंतर्विवाही समूह जाति के समान है। जैसे एक जाति कई गोत्रों में बंटी होती है. वैसे ही प्रत्येक गोंड जनजाति गोत्रों में बंटी है और ये गोत्र हिन्दू गोत्रों की ही भाँति बहिर्विवाही समूह है। देखा जाय तो गोंड समूह. हिन्दुओं में पाए जाने वाले वर्ण की भाँति है। जिस प्रकार एक वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि इसी प्रकार गोंड वर्ण के लोग भी कई जातियों में बंटे हैं- जैसे माड़िया, मुरिया, अगरिया आदि। महावर जी द्वारा प्रदत्त सामग्री का उपयोग कर समाजशास्त्रीय ढंग से इस क्लिष्ट सामाजिक संरचना को समझा जा सकता है। महावर जी ने अपने तीसरे अध्याय में इसका विस्तार से जिक्र किया है, यद्यपि मेरी राय में वह समाजशास्त्रीय दृष्टि से अपर्याप्त है। किंतु इससे इस पुस्तक की उपादेयता कम नहीं हुई है।

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