श्री पुरुषोत्तममिश्र द्वारा रचित सङ्गीनारायण सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। श्री पुरुषोत्तममिश्र (उत्कल) उड़ीसा के पारलाखेमुण्डी (पारलाखेभिण्डि) के राजा गजपति नारायणदेव के राजदरबार में मन्त्री एवं संगीतशास्त्र गुरु थे।
सङ्गीतनारायण ग्रन्थ श्री पुरुषोत्तम मिश्र एवं राजा गजपति नारायणदेव के संयुक्त कार्यों का प्रतिफल भी माना जाता है। यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ का रचनाकाल अस्पष्ट है, किन्तु कुछ लिखित साक्ष्यों एवं ग्रन्थ में निहित पाठ्य सामग्रियों के अध्ययन से सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इस ग्रन्थ की रचना होने के संकेत प्राप्त होते हैं।
संगीत एवं नृत्य की व्यापक चर्चा करने वाले पूर्वी भारत के इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में संगीतशास्त्र परम्परा की प्रवाहमान धारा दृष्टिगोचर होती है। संगीतशास्त्र परम्परा समृद्ध, इस ग्रन्थ में भरत से लेकर अन्य पूर्वर्ती ग्रन्थकारों के सिद्धान्तों को सन्दर्भित करते हुए नवीन विचारों एवं सिद्धान्तों का प्रस्तुतिकरण भी किया गया है।
संगीत के लक्ष्य एवं लक्षण (प्रयोग एवं शास्त्र) की दृष्टि से अनेकों लेखन कार्य किए गए, जिनमें से सङ्गीतनारायण ज्ञान का एक बड़ा स्रोत रहा है, फलतः उड़ीसा से प्राप्त ग्रन्थों में यह उत्कृष्ट श्रेणी का ग्रन्थ है।
सङ्गीतनारायण ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है। रचनाकार ने अध्याय को परिच्छेद की संज्ञा दी है। जो अधोलिखित क्रम में है प्रथम परिच्छेद-गीतनिर्णय गायन के विविध पक्षों से सम्बन्धित, द्वितीय परिच्छेद-वाद्य निर्णय, विविध प्रकार के स्वर एवं ताल वाद्यों से सम्बन्धित हैं, तृतीय परिच्छेद नाट्य निणर्य-नृत्त, नृत्य एवं नाट्य से सम्बन्धित है तथा चतुर्थ परिच्छेद शुद्ध प्रबन्धोदाहरण है जिसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह परिच्छेद प्रबन्धों को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करता है।
यह ग्रन्थ भारतीय संगीत एवं नाट्य के आधार ग्रन्थ भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र का सन्दर्भ लेते हुए नारदसंहिता, पंचमसारसंहिता, मम्मटकृत संगीतरत्नमाला, गोपगोविन्द (सांगीतिक रचनाओं की व्याख्या), गीतगोतविन्द (प्रबन्ध रचना), कोहलीय, मतङ्गकृत बृहद्देशी, शार्ङ्गदेवकृत सङ्गीतरत्नाकर, संङ्गीतशिरोमणि, हरिनायकसूरीकृत संगीतसार, दामोदरसेनकृत संगीत दामोदर व शुभंकरकृत संगीत दामोदर, संगीत वाचस्पति, कलांकुरनिबन्ध एवं संगीत कल्पतरू आदि को सन्दर्भ के रूप में लेते हुए ग्रन्थ में निहित पाठ्य सामग्रियाँ प्रस्तुत कर ग्रन्थ को समृद्ध करता है।
ग्रन्थकार के ज्ञान का क्षेत्र और भी विस्तारित दिखाई देता है, जब विष्णुपुराण, काव्यप्रकाश जैसे अन्य ज्ञान की शाखाओं का सन्दर्भ ग्रन्थ में प्राप्त होता है।
ग्रन्थ (सङ्गीतनारायण) की पन्द्रह पाण्डुलिपियाँ कुछ पूर्ण एवं कुछ आंशिक रूप में प्राप्त हैं, जिसके आधार पर चार परिच्छेदों (अध्यायों) का संस्करण सन् १९६६ में उड़ीसा, संगीत नाटक अकादमी द्वारा पं० वानम्बर आचार्य, कविचन्द्र, कालीचरण पटनायक एवं श्री केदारनाथ महापात्रा जी के संयुक्त सम्पादन में प्रकाशित हुआ, तत्पश्चात् ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रो० जोनाथन कार्ज ने सन् १९८७ में इस ग्रन्थ के संगीतशास्त्र सम्बन्धी तीन अध्यायों को विश्लेषित किया, किन्तु वह अभी तक अप्रकाशित है। इसके उपरान्त इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के द्वारा कलामूल शास्त्र श्रृंखला के अन्तर्गत विदुषी प्रो० मन्दाक्रान्ता बोस ने सन् २००९ में इस ग्रन्थ का सम्पादन अंग्रेजी अनुवाद तथा समस्त पाण्डुलिपियों के पाठभेद के साथ प्रकाशित किया, जो अत्यन्त उपयोगी है।
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