प्राक्कथन
संगीत शास्त्र दर्पण के तृतीय भाग को अपने सहृदय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् १६५२ में पण्डित जगदीश नारायण पाठक, रजिस्ट्रार, प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद ने एक ही पुस्तक में छपवाया था। विद्यांथियों की सुविधा के लिये कुछ समय के उपरान्त इसका द्वितीय भाग भी प्रकाशित हो गया और अब इसका तृतीय भाग भी तैयार हो गया है। इस पुस्तक का प्रथम भाग हाई स्कूल तथा प्रयाग संगीत समिति के प्रथम तथा द्वितीय वर्ष के साथ इसके समकक्ष किसी भी पाठ्यक्रम के अनुसार है। इसी प्रकार इस पुस्तक का द्वितीय भाग प्रयाग सगीत समिति के तृतीय एवं चतुर्थ वर्ष, उ० प्र० बोर्ड के इण्टर के समकक्ष पाठ्यक्रमानुसार तथा तृतीय भाग प्रयाग संगीत समिति के पचम वर्ष तथा संगीत प्रभाकर, विश्वविद्यालयों के बी० ए०, गान्धर्व मण्डल के संगीत विशारद के समकक्ष पाठ्यक्रम के अनुसार इन सभी पुस्तकों को पाठ्यक्रम के अनुसार ही तैयार किया गया है। उत्तर भारतीय संगीत शास्त्र के जटिल तथा विवादग्रस्त विषयों को स्पष्ट रूप से तथा विस्तारपूर्वक समझाते हुए भाषा को सरल, सुबोध एवं रोचक बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक संगीत प्रेमियों तथा विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी । इस पुस्तक के प्रकाशन में जिन महानुभावों का सहयोग मुझे समय-समय पर प्राप्त हुआ है, मैं उनका हृदय से आभार प्रकट करती हूँ। इस महान् अनुकम्पा के लिए श्री उदय शंकर जी कोचक, अध्यक्ष, संगीत विभाग, प्रयाग विश्वविद्यालय, पण्डित जगदीश नारायण पाठक, रजिस्ट्रार, प्रयाग संगीत समिति तथा श्री जे० एन० चौबे विशेष उल्लेखनीय हैं। मैं अपने अनुज श्री विश्वनाथ श्रीखण्डे की अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने इस सस्करण में पुस्तक को नया रूप प्रदान करने में मेरी सहायता की । सन् १६५३ के बाद मुझे बहुत कम अवकाश भारतवर्ष में रहने का प्राप्त हुआ अतः मेरी अनुपस्थिति में इस पुस्तक का सारा भार मेरे छोटे भाई ही पड़ा। अतएव मैं उनको धन्यवाद देना अपना कर्तव्य समझती हूँ। में उन संस्थाओं के प्रति भी अपना आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने 'संगीत शास्त्र दर्पण' को अप-नाया और इसे पाठ्य पुस्तक का रूप प्रदान किया है। अन्त में, यदि यह पुस्तक संगीत की कुछ भी सेवा कर पनी हो में अपने श्रम को सार्थक समझेंगी ।
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